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________________ २६] अनेकान्त [वर्ष १४ धान मा. कुन्दकुन्दने १२ वीं गाथा बनाकरके किया और यत: कुन्दकुन्दका जन्म दक्षिण भारतमें हुआ था बताया कि और उन्होंने किन्हीं दाक्षिणात्य प्राचार्यसे दीक्षा ग्रहण "जो द्वादशलके वेत्ता, चतुर्दश पूर्वोके अर्थका विपुल- की थी, जिसकी विश्व ति भी सर्वत्र थी, अतः उनका अपने रूपसे विस्तार करनेवाले और अ तहानी (श्र तकेवली.) भद्रबाह लिए 'सीसेण या भद्रबाहुस्स' इतना मात्र उल्लेख सन्देहप्राचार्य हुए हैं. वे ही भगवान भद्रवाह मेरे गमक-गुरु, जनक या भ्रम-कारक होता। उसे दूर करनेके लिए व (ज्ञानगुरु या विद्यागुरु) है। और ऐसा कह करके उनका उन्होंने 'गमयगुरु' पद दिया और उसके द्वारा यह बात जयघोष किया है। स्पष्ट कर दी कि यद्यपि मेरे दीक्षागुरु अन्य हैं, तथापि मेरे इस गाथामें दिये गये तीन पद खासतौरसे विचारणीय ज्ञान-(विद्या-) गुरु भद्रबाहु स्वामी ही हैं। दूसरी बात यह एवं ध्यान देने योग्य है-द्वादशाह वेत्ता चतुर्दश पूर्वधर भी हो सकती है कि कुन्दकुन्दको भद्रबाहुके साक्षात् और श्रुतज्ञानी । इन तीनोंमेंसे प्रत्येक पद या विशेषण शिष्यत्वकी साक्षी देनेवाले सहाध्यायी या सहदीक्षित अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहुके बोध करानेके लिए पर्याप्त प्राचार्यों से उस समय कोई भी विद्यमान नहीं हों और था, क्योंकि जो द्वादशाका वेत्ता है, वह चतुर्दश पूर्वोका सभी स्वर्गवासी हो चुके हों। ज्ञाता होता ही है । अथवा जो चौदह पूर्वोका ज्ञाता होता है, (२) दूसरी पाशंका भी समुचित प्रतीत होती है, वह द्वादशाङ्गका वेत्ता होता ही है। इसी प्रकार दोनोंका उसका कारण यह है कि नन्दिसंघकी पट्टावलीके अनुसार वेत्ता पूर्ण श्रुतज्ञानी या श्रतकेवली माना ही जाता है। भद्रबाहुके पश्चात् विशाखाचार्यका काल १० वर्ष, प्रोप्ठिलका फिर क्या वजह थी किया. कुन्दकन्दको अपने गरुके नाम- १६ वर्ष और क्षत्रियका १७ वर्ष है। यदि ये तीनों ही के साथ तीन-तीन विशेषण लगाने पदेशासका कारण स्पष्ट प्राचार्य कुन्ककुन्दके जीवन-कालमें दिवंगत हो चुके हों, और और वह यह कि वे उक्त तीनों विशेषण देकर और उसके उसके बाद चौथी पीढ़ीके प्राचार्य जयसेन वर्तमान हों तो पश्चात् भी 'भयवनो' (भगवन्त ) पद देकर खलेरूपमें भी कोई असंभव बात नहीं है। इसका कारण यह है कि जोरदार शब्दोंके साथ यह घोषणा कर रहे हैं कि उनी भद्रबाहुके बाद होने वाले उक्त तीनों प्राचार्योका काल भद्रबाहुका शिष्य हूँ, जो कि द्वादशाह वेत्ता, या चतुर्दश ४६ वर्ष ही होता है। श्रा० कुन्दकुन्दकी आयु अनेक पूर्वधर या अन्तिम श्रुतकेवलीके रूपसे संसार में विख्यात आधारोंसे ८४ वर्षकी सिद्ध है। और उन्होंने बाल-वयमें दीक्षा ली थी, यह बात भी उनके 'एलाचार्य' नामसे प्रकट इसी ६श्वी गाथामें दिया गया 'गमगुरु' पद भी हैं। भगवती आराधनाकी टीकामें 'एलाचार्य' का अर्थ 'बालअत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और गहराईसे विचार करने पर उससे दीक्षित साधु' किया गया है। अतएव यदि दीक्षाके समय कितनी विशेष बातोंका आभास मिलता है और ऐसा प्रतीत कुन्दकुन्दकी आयु १६ वर्षकी भी मानी जावे और पूरे .. होता है कि उनके सामने आई हुई, या आगे मानेवाली वर्ष साधु-जीवन यापन करनेके पश्चात् उन्हें भद्रबाहुके पास उस प्रकारकी सभी शंकाओंका समाधान प्रा. कुन्दकुन्दने पहुंचनेकी कल्पना की जाये तो भी उन्हें भद्रबाहुके चरणउक तीनों पदोंके साथ 'गमकगुरु' पद देकर किया है। सानिध्य में बैठकर १०.१२ वर्ष तक ज्ञानाभ्याप करनेका भेरी कल्पनाके अनुसार जिन आशंकामोंको ध्यानमें रखकर अवसर अवश्य मिला सिद्ध होता है। इस सर्व कथनका मा० कुन्दकुन्दने उक्त पदका प्रयोग किया है. वे इस प्रकार- निष्कर्ष यह निकला कि यदि श्रुतकेवली भद्रबाहुके स्वर्गकी होनी चाहिए: वासके समय कुन्दकुन्दकी अवस्था ३५-३६ वर्षकी मानी (१) यतः कुन्दकुन्दाचार्यके दीक्षा-गुरु अन्य थे। जाय, और तदनन्तर उनके पट्ट पर आसीन होने वाले तीन (२) यतः बोधपाहुबकी रचनाके समय भगवाहुको पीढ़ी के प्राचार्योंका समय ४६ वर्ष व्यतीत हुधा भी मानें, दिवंगत हुए बहुत समय हो गया था और उस समय तो भी चौथी पीढ़ीके प्राचार्य जयसेनके पट्टपर बैठने के समय संभवतः उनके या दोनोंके पट्टों पर तीसरी या चौथी कुन्दकुन्दकी आयु ८१-८२ वर्षकी सिद्ध होती है। और पीढोके प्राचार्य बासीन थे। यदि इसी समयके लगभग कुन्दकुन्दने बोध-पाहुडकी रचना उन दोनों आशंकाओंके औचित्य पर क्रमशः विचार की हो, तो लोगों में इस शंकाका उठना स्वाभाविक था कि किया जाता है: भद्रबाहुको दिवंगत हुए तो ३ पीढ़ियां व्यतीत हो चुकी है, ---- -- -
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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