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________________ ६४ ] अनेकान्त पद्य-नम्बर भी पड़ गया है । उसीके फलस्वरूप अगले अगले पद्योंके क्रमाङ्कों में एक-एक अंककी वृद्धि होकर अन्तका ७२वां पद्य ७३ नम्बरका बन गया है। ऋतु, यह प्रन्थ एक गुटकेमें, जिसके पत्रोंकी स्थिति जी है, ७ पत्रों पर (२५२ से २५८ तक) अंकित है. और प्राय: ३००-४०० वर्षका लिखा हुआ जान पड़ता है। प्रस्तुत प्रथ अपने विषयका एक बड़ा ही सुन्दर एवं सार ग्रन्थ है। अनगार- धर्मामृतकी टीका-प्रशस्तिमें इसके लिये जिन तीन विशेषरणों का प्रयोग किया गया है वे इस पर ठीक-ठीक घटित होते हैं । यह निःसन्देह प्रसन्न और गम्भीर है। प्रसन्न इसलिये कि यह झटसे अपने अर्थको प्रतिपादन करनेमें समर्थ है और गम्भीर इसलिये कि इसकी अर्थयवस्था दूसरे अध्यात्मशास्त्रों-समाधितंत्रादिमंथों की १४ का कार्य हो जानेपर वह प्रति उन्हें सुरक्षित रूपमें वापिस भेज दी जावेगी । ग्रन्थ प्रादि-अन्तके दो पद्य निम्न प्रकार हैंअन्येभ्यो भजमानेभ्यो यो ददाति निजं पदम् । तस्मै श्रीवीरनाथाय नमः श्रीगौतमाय प्र ॥ १ ॥ शश्वच्तयते यदुत्सवमयं ध्यायन्ति यद्योगिनो येन प्राणिति विश्वमिन्वनिकरा यस्मै नमः कुर्वते । मैचित्रयतो यतोऽस्ति पदवी पस्थान्तरप्रत्ययो सुक्रियंत्र तयस्तदस्तु मनसः स्फूजस्परं ब्रह्म मे ॥ ७२ ॥ मंगलाचरण-विषयक दो पद्योंके अनन्तर, ग्रंथके विषयका प्रारम्भ करते हुए जो तीसरा पद्य दिया है। बह इस प्रकार है अपेक्षाको साथ में लिये हुए है। योगका आरम्भ करनेवालोंके लिये तो यह बड़े ही काम की चीज हैउन्हें योगका मर्म समझाकर ठीक मार्ग पर लगानेबाली तथा उनके योगाभ्यासका उद्दीपन करनेबाली है। और इसलिये इसे उनके प्रेमको अधिकारी एवं प्रिय वस्तु कहना बहुत हो स्वाभाविक है । अध्यात्म-रसिक वृद्ध पिताजीके आदेश से लिखी गई यह कृषि मशाधरजीके सारे जीवनके अनुभवका निचोड़ जान पड़ती है। मैं तो समझता हूँ आशाधरजीने इसे लिखकर अपने विशाल धर्मामृत-प्रन्थप्रासादपर एक मनोहर सुवर्ण कलश चढ़ा दिया है। और इस दृष्टिसे यह उस ग्रन्थके साथ भी अगले संस्करणों में प्रकाशित होना चाहिये। मुझे इस ग्रन्थको देखकर बढ़ी प्रसन्नता हुई और साथ ही इसके अनुवादादिककी भावना भी जागृत हो उठी। यह प्रन्थ शीघ्र ही प्रकाशमें लानेके योग्य है । वीरसेवामन्दिर ने इस कामको अपने हाथमें लिया है और उसे इसके प्रकाशन में फिलहाल दो सौ रुपयेकी सहायताका वचन भी धर्म- रसिक ला० मक्खनलालजी ठेकेदार दिल्लीसे प्राप्त होगया है । यदि किसी भाईको दूसरे शास्त्र भण्डारसे इस ग्रन्थकी कोई अन्य प्रति उपलब्ध हुई हो तो वे उसे शीघ्र ही मेरे पास भेजनेकी कृपा करें, मिलान तथा संशोधन शुद्ध श्रुति-मति-ध्याति-दृष्टयः स्वात्मनि क्रमात् । यस्य सद्गुरुतः सिद्धः स योगी योगपारगः ॥ इसमें बतलाया है कि 'स्वात्माके शुद्ध होनेपर जिसको सद्गुरुके प्रसाद से श्रुति, मति, ध्याति और दृष्टि ये चारों क्रमसे सिद्ध हो जाती हैं वह योगो योगका पारगामी होता है ।" इसके बाद प्रन्थ में स्वात्मा, शुद्धस्वात्मा, श्रुति, मति, ध्याति, दृष्टि और सद्गुरुके लक्षणादिका प्रतिपादन किया है और तदनन्तर दूसरे रत्नत्रयादि विषयों को लिया गया है। ७१ वें पद्यमें एक आशीर्वा दात्मक वाक्य निम्न प्रकार से दिया है "भूयाद्वो व्यवहार- निश्चयमयं रत्नत्रयं श्रेयसे” अर्थात् — व्यवहार और निश्चयमयी रत्नत्रय (धर्म) तुम्हारे कल्याणका कर्त्ता होवे । इस परिचयसे खोज करनेवाले सज्जन दूसरे शास्त्र-भंडारोंसे इस ग्रन्थकी खोज कर सकेंगे। सागारधर्मामृतका पुरानी हस्तलिखित प्रतियों को भी टटोला जाना चाहिये, संभव है उनमें से किसीमें यह १८वाँ अध्याय लगा हुआ हो । ८. समाधिमरणोत्साह- दीपक यह संस्कृत मन्थ आचार्य सकलकीर्तिकी कृति है, जोकि विक्रमकी १४वीं शताब्दी के विद्वान् हैं। अभी तक यह ग्रंथ भी उपलब्ध नहीं था। आचार्य सकलकीर्तिकी प्रन्थ-सूचियों में भी इसका नाम नहीं मिल रहा था। यह भी उसी गुटकेसे उपलब्ध हुआ है जिसमें योगोद्दीपन (अध्यात्म - रहस्य) नामका एक "
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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