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________________ किरण ३-४] पुराने साहित्यकी खोज [६५ शास्त्र पाया जाता है। इसकी पद्यसंख्या २१६ है और ओंकी साथमें योजना की है जिससे मरते समय पादि-अन्तके दो-दो पद्य इस प्रकार हैं हपबमें निजात्मका भान होकर मोहका विघटन हो . समाधिमरवादीमा फर्क प्राप्ताम् जिनादिकान् । जाय, शान्ति तथा समताकी प्रतिष्ठा होसके, रोगादि• समाधिमृत्यु-सिद्धयर्थ वन्दे पंचमहागुरुन् ॥ जन्य वेदनाएँ वित्तको उद्वेजित न कर सकें, धैर्य अथ स्वाम्योपकराय वये संन्यास-सिये। गिरने न पावे और उत्साह इतना बढ़ जाय कि समाधिमरणोत्साह-दीपकं प्रायमुत्तमम् ॥२॥ . मृत्यु भयकी कोई वस्तु न रहकर एक महोत्सवका xxx रूप धारण कर लेवे। यह प्रन्थ अपने विषयकी बड़ी असमगुणनिधाना विश्व-कल्याणमूग. उपयोगी रचना है और शीघ्र ही अनुवादाविके साथ त्रिभुवनपतिपज्या वन्दिताः संस्तुताच ॥ प्रकाशित किये जानेके योग्य है। प्रकाशनके समय इसके सुगवि-सकनकीर्त्या पान्तु सम्पूर्णता मे साथ वह 'मृत्युमहोत्सव' पाठ भी सानुवाद रहे, सुमस्य-शिक-सिद्धये सद्गाचा महस्यः ॥३॥ जिसे पं० सदासुखजीने रस्नकरण्ड-श्रावकाचारकी पेस्तीर्थेशपरैः सतां सुगतये सम्यकप्रणीताश्च या भाषा-टीकामें उद्धृत किया है, और पं० सूरसेनजी यासा सेवनतो बभूवुरमनाः सिद्धा अनन्ता हिने का तद्विषयक हिन्दी पाठ भी। साथ ही, भगवतीवा नित्यं कथति मूरि-सुविदोऽवाराधयन्ते परे, आराधनादि ग्रन्थोंसे दूसरी ऐसी महत्वकी सामग्री वास्ते मे निखिला स्तुता. सुमतये दधगाथा परां ॥२१६ भी प्रभावक शब्दोंमें चित्रादिके साथ संकलित की इस ग्रन्थका विषय इसके नामसे ही स्पष्ट है। जानी चाहिये जिससे इस विषयमें प्रस्तुत ग्रन्थ-अकाजैनधर्ममें समाधि-पूर्वक मरणका बड़ाही महत्व है, शनको उपयोगिता और भी बढ़ जाय और वह उसकी सिद्धिके बिना सारे किए कराये पर पानी 'घर-घरमें विराजमान होकर संकटके समय सबको फिर जाता है और यह ससारी जीव मरमके सान्तवना देने और मरणासन्न व्यक्तियोंके परलोक समय परिणामों में स्थिरता एवं शान्ति न लाकर सुधारने में सच्चा सहायक हो सके । कुछ सज्जनोंका धर्म तथा मरणकी विराधना करता हुआ दुर्गतिके आर्थिक सहयोग प्राप्त होने पर बीरसेवामन्दिर दुःखोंका पात्र बन जाता है। इससे अन्त-समयमें शीघ्र ही इस आवश्यक कार्यको अपने हाथमें ले समाधि-पूर्वक मरणके लिये बड़ी सतर्कता एवं साव सकेगा, ऐसी हद बाशा है। धानी रखनेकी जरूरत बतलाई गई है, और 'भन्ते है. चित्रबन्ध-स्तोत्र (सचित्र) समाहिमरणं दुग्गइदुकवं निवारेई जैसे वाक्योंके चतुर्विशतिजिनकी स्तुतिको लिये हुए यह द्वारा समाधि-मरणको दुर्गतिमें पड़नेसे रोकने तथा मंस्कृत स्तोत्र अपनी अग-रचनामें चित्रालंकारोंको उसके दुःखोंसे बचाने वाला बतलाया है। और अपनाए हुए है, इसीसे इसका नाम चित्रबन्धस्तोत्र यही वजह है कि नित्यको पूजा-प्रार्थनादिके अवसरों है, अन्यथा इसका पूरा नाम 'चतुर्विशति-जिन-स्तोत्र' पर इसकी बराबर भावना की जाती है। इस या 'चतुर्विंशतिजिन-चित्रवन्धस्तोत्र' होना चाहिये। भावनाको द्योतक एक प्रसिद्ध प्राचीन गाथा इस स्तोत्रक अन्त में 'इति चिनबन्धस्तोत्रं समात' वाक्यके प्रकार है द्वारा इसे संक्षिप्त नामके साथ ही उल्लिखित किया "दुक्खखनो कम्मखमो समाहिमरणं च बोहिलाहो वि। .है और प्रथम पद्यमें भी चित्रबन्धके द्वारा वृषभादि मम होउ तिजगबन्धव तव जिणवर चरण-सरणेण " तीर्थ नेताओंके स्तोत्रकी सूचना का गई है। इसकी जैनसमाजमें आचार्य सकलकीर्तिका नाम पथ-सख्या २६ है. जिनमेंसे मादि-अंतके दो पद्योंको सुप्रसिद्ध है और उनके बनाये हुए कितने ही प्रन्थ छोड़कर शेष २४ पोंमें चौबीस तीर्थकरोंकी अलगप्रचलित है। इस ग्रन्थ में उन्होंने समाधिसिद्धिके अलग स्तुति की गई है। प्रत्येक स्तुति-पद्य एक ही लिए अच्छी सामग्री जुटाई है, समाधि पूर्वक मरण- अनुष्टुब् छंदमें होते हुए भी अपने अंगमे अक्षरोंकी विधि-व्यवस्था बतलाई है और ऐसी सत् शिक्षा- छारा निर्मित 'जुदा जुदा चित्रालंकारको धारण
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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