SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 262
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्माके त्याज्य और ग्राह्य दो रूप बहिरात्मा अन्तरात्मा बहिरात्मेन्द्रिय द्वारैरात्मज्ञान-परान्मुखः। मात्मानमन्तरे दृष्ट्वा दृष्टवा देहादिकं बहिः। स्फुरितश्चात्मनो देहमात्मत्वेनाध्यवस्यति ॥१॥ तयोरन्तरविज्ञानादन्तरात्मा भवत्ययम् ॥८॥ जो इन्द्रियों द्वारा वाह्य पदार्थोंको ग्रहण करता हुआ। अन्तरङ्गमें ज्ञान-दर्शनमयी अपने श्रात्माको देख कर पात्मज्ञानसे परान्मुख रहता है और अपने देहको प्रारमरूप और बहिरङ्गमें अचेतन, ज्ञान-शून्य शरीरादिकको देख कर से निश्चय करता है अर्थात् शरीरको ही प्रास्मा समझता है स्व और परका भेद-विज्ञान होनेसे यह प्राणी अन्तरात्मा उसे बहिरारमा कहते हैं ॥१॥ बन जाता है ॥८॥ नरदेहस्थमात्मानमविद्वान् मन्यते नरम् । प्रजहाति च यःकामान् सर्वानपि मनोगतान् । तियेचं तिर्यगंगस्थं सुरांगस्थं सुरं तथा ॥२॥ श्रात्मन्येवात्मना तुष्टः सोऽन्तरात्मा निगद्यते ॥६ नारकं नारकांगस्थं न स्वयं तत्त्वतस्तथा। जो जीव अपने मनोगत सर्व मनोरथोंको सर्वथा त्याग तथापि मोहमाहाल्यावपरीत्यं प्रपद्यते ॥३॥ देता है और अपने प्रात्मामें ही स्वतः सन्तुष्ट रहता है, बहिरात्मा, मनुष्य-देहमें स्थित आरमाको मनुष्य, वह अन्तरात्मा कहलाता है ॥६॥ तिर्य-शरीरमें स्थित प्रात्माको तिर्य, देव-शरीरमें स्थित दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु यो गतस्पृहः ।। आत्माको देव और नारक-शरीरमें स्थित प्रास्माको नारकी वातराग-भय-क्रोधः सोऽ-तरात्मा निगद्यते ॥१०॥ जो दुःखोंके आने पर घबड़ाता नहीं है और सुखोंके मानता है। यद्यपि तस्वदृष्टिसे प्रारमा उक प्रकार नहीं है, मिलने पर जिसे हर्ष नहीं होता, प्रत्युत जो उनमें गतस्पृह तथापि मोहके माहात्म्यसे बहिरात्मा विपरीत मानता (इच्छा-रहित) रहता है, तथा जो राग, भय और क्रोधके वशीभूत नहीं होता, वह अन्तरात्मा कहलाता है ॥१०॥ तनु-जन्मनि स्वकं जन्म तनु-नाशे स्वकां मृतिम् । यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् । मन्यमानो विमूढात्मा बहिरात्मा निगद्यते ॥४॥ नाभिनन्दति न दृष्टि सोऽन्तरात्मा निगद्यते ।।१।। शरीरके जन्म होने पर अपना जन्म और शरीरके नाश जो सांसारिक बन्धुजनोंसे स्नेह-रहित हो गया है और होने पर अपना मरण मानने वाला मूढ जीव बहिरात्मा उन-उन शुभ अशुभ वस्तुओका पाक उन-उन शुभ अशुभ वस्तुओंको पाकर न उनका अभिनन्दन कहलाता है॥४॥ करता है और न द्वेष ही करता है, वह अन्तरामा अहं दुःखी खो चाहं रिक्तो राजा सुधीः कुधीः । कहलाता है।॥११॥ इति सचिन्तयन् मूढो बहिरात्मा निगद्यते ॥५॥ यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च केवलः। आत्मन्येव च सन्तुष्टः सोऽन्तरात्मा निगधत ॥१२॥ __ मैं सुखी हूँ, मैं दु.खी हूँ, मैं दरिद्र हूँ, मैं राजा हूँ, जिसकी एकमात्र अपने प्रात्मामें प्रीति है, जो अपने मैं विद्वान् हूँ, मैं मूर्ख हूँ, इस प्रकार चिन्तवन करने वाला मात्मामें तृप्त है और अपने प्रात्मामें ही सन्तुष्ट है वह मूढ जीव 'बहिरास्मा' कहलाता है॥४॥ अन्तरात्मा कहलाता है ॥१२॥ सबलो निबंलश्चाई सुभगो दुर्भगस्तथा। असक्तः लौकिक कार्य सततं यः समाचरेत्।। इति संचिन्तयन् मुढो बहिरात्मा निगद्यते ॥६॥ भासक्त आत्म-कार्येषु सोऽन्तरात्मा निगद्यते ॥१३॥ मैं बलवान् है, मैं निबल हूँ, मैं भाग्यवान् हूँ तथा मैं जो मनुष्य सतत आसक्रि-रहित होकर सर्व लौकिक अभागा है, इस प्रकार चिन्तवन करने वाला मूठ जीव कायोंको करता है और आत्मिक कार्योमें सदा तत्पर रहता है बहिरास्मा कहलाता है।॥६॥ वह अन्तरात्मा कहलाता है॥१३॥ मम हयमिदं वित्तं सुत-दारादयो मम । प्रात्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति यो जनः। इति सचिन्तयन् मूढो बहिरात्मा निगद्यते ॥ सख वा यदि वा दुःखं सोऽन्तरात्मा निगद्यते ॥१४॥ यह मेरा मकान है, यह मेरा धन है, और ये मेरे पुत्र, जो मनुष्य समस्त प्राणियोंके सुख और दुःखको अपने स्त्री, प्रादि हैं, इस प्रकार चिन्तवन करने वाला मूढ जीव सुख और दुःखके समान देखता है और सबको समान मानता बहिरास्मा कहलाता है। बहिरात्म-दशा त्याज्य है॥७॥ है वह अन्तरात्मा कहलाता है। यह दशा प्राय है ॥१४॥ (भारतीय ज्ञानपीठ काशीसे शीघ्र प्रकाशित होने वाली जैन गीतासे)
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy