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________________ अतिचार-रहस्य (श्री० पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री) देव, गुरु, संघ, प्रात्मा आदिकी साशीपूर्वक प्रकारका रहता है । इन सब बाह्य कारणोंसे तथा जो हिंसादि पापोंका-बुरे कार्योंका-परित्याग किया संज्वलन और नो कषायोंके तीव्र उदयसे उसके जाता है. उसे व्रत कहते हैं। पापोंका यदि ब्रतोंमें कुछ न कुछ दोष लगता रहता है । अतएव एक देश या आंशिक त्याग किया जाता है, तो उसे व्रतकी अपेक्षा रखते हुए भी प्रमादादि तथा बाम अणुव्रत कहते हैं और यदि सर्व देश त्याग किया परिस्थिति-जनित कारणोंसे गृहीत व्रतोंमें दोष जाता है, तो उसे महानत कहते हैं। यतः पाप पांच लगनेका, व्रतके आंशिक रूपसे खण्डित होनेका हैं, अतः उनके त्यागरुप अणुव्रत और महाव्रत भी और गृहीत व्रतकी मर्यादाके उल्लंघनका नाम ही पांच-पांच ही होते हैं । इस व्यवस्थाके अनुसार शास्त्रकारोंने अतिचार रखा है । यथामहाव्रतोंके धारक मुनि और अणुव्रतोंके धारक सापेक्षस्य ते हिस्यादतिचारोंऽशभम्जनम् । श्रावक कहलाते हैं । पांचों अणुव्रत श्रावकके शेष . सागारधर्मामृत अ०४ श्लोक १८) व्रतोंके, तथा पांचों महाव्रत मुनियों के शेष व्रतोंके जब अप्रत्याख्यानावरण कषायका तीव्र उदय मूल आधार हैं, अतएव उन्हें मूलव्रत या मूलगुणके आजाता है, तो व्रत जड़मूलसे ही खण्डित होजाता नामसे भी कहा गया है। मूलवतों या मूलगुणोंकी है। उसके लिए प्राचार्योने अनाचार ऐसे नामका रक्षाके लिए जो दूसरे व्रतादि धारण किये जाते हैं, प्रयोग किया है। यदि किसी व्रतके पूरे सौ अंक रखे उन्हें उत्तरगुण कहा जाता है । इस व्यवस्थाके जावें, तो एक से लेकर निन्यानवे अङ्क तकका व्रतअनुसार मूलमें श्रावकके पाँच मूलगुण और सात खण्डन अतिचारकी सीमाके भीतर पाता है । उत्तरगुण बताये गये हैं। उत्तर गुणांका कुछ आचार्यो- यदि शत-प्रतिशत व्रत खण्डित हो जावे, तो उसे ने 'शीलव्रत' संज्ञा भी दी है। श्रावक धमके विकासके अनाचार कहते हैं। अनेक आचार्योने इसी दृष्टिसाथ-साथ मूलगुणोंकी संख्या पाँचसे बढ़कर आठ को लक्ष्य में रख करके अतिचारोंकी व्याख्या की है। हो गई, अर्थात् पाँचों पापोंके त्यागक साथ मद्य, किन्तु कुछ प्राचार्योने अतिचार और अनाचार इन मांस और मधु इन तीनोंके सेवनका त्याग करनेको दोके स्थान पर अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और आठ मूलगुण माना जाने लगा । कालान्तरमें अनाचार ऐसे चार विभाग किये हैं। उन्होंने मनके पाँच पापोंका स्थान पांच उदुम्बर-फलोंने ले लिया भीतर व्रत-सम्बन्धी शुद्धिकी हानिको अतिक्रम, व्रत और एक नये प्रकारके आठ मूल गुण माने जाने की रक्षा करनेवाली शील-बाढ़के उल्लंघनको व्यतिलगे। तथा पाँच अणुव्रतोंकी गणना उत्तर गुरणोंमें क्रम, विषयों में प्रवृत्ति करनेको अतिचार और की जाने लगी और सातके स्थान पर बारह उत्तर विषयसेवनमें अति आसक्तिको अनाचार कहा है। गुण या उत्तर व्रत श्रावकोंके माने जाने लगे। जैसा कि प्रा. अमितगतिने कहा हैमुनिजनोंके पाँचों पापोंका सर्वथा त्याग नव- क्षतिं मनःशुद्धिविधेरतिक्रमं व्यतिक्रमं शीलवृतेविलंघनम् । कोटिसे अर्थात् मन, वचन, काय और कृत, कारित प्रभोऽतिचारं विषयेषु वर्तनं बदन्त्यनाचारमिहातिसक्रिताम् ॥ अनमोदनासे होता है, अतएव उनके व्रतोंमें किसी इनके मतानुसार १ से लेकर ३३ अंश तकके प्रकारके अतिचारके लिए स्थान नहीं रहता । पर व्रत-भंगको अतिक्रम, ३४ से लेकर ६६ अंश तकके श्रावकोंके प्रथम तो सर्व पापोंका सर्वथा त्याग व्रत-भंगको व्यतिक्रम, ६७ से लेकर ६६ अंश तकके सम्भव नहीं। दूसरे हरएक व्यक्ति नवकोदिसे पापों- व्रत-भंगको अतिचार और शत-प्रतिशत व्रत-भंगको का त्याग भी नहीं कर सकता है। तीसरे प्रत्येक अनाचार समझना चाहिए। व्यक्तिके चारों ओरका वातावरण भी भिन्न-भिन्न परन्तु प्रायश्चित्त-शास्त्रोंके प्रणेताभोंने उक्त गुण माने जर भातर व्रतवार विभाग शुव्रतोंकी
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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