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________________ २२२] अनेकान्त [वर्ष १४ - - चारके स्थान पर 'आभोग को बढ़ा करके पाँच अर्थात् सम्यग्दर्शन, पांच अणुव्रत, तीन गुणत्रत विभाग किये हैं। उनके मतसे एक वार व्रत खंडित और चार शिक्षाव्रत, इन तेरह व्रतोंमंसे प्रत्येक करके भी पुनः व्रतमें वापिस आ जानेका नाम ब्रतके अतिक्रम आदिक भेदसे पांच-पांच मल या अनाचार है और व्रत-खण्डित होने के बाद निःशंक अतिचार होते हैं। अतएव सर्व अतिचार (१३४५ होकर उत्कट अभिलापाके साथ विपय-सेवन करने- =६५)पैंसठ हो जाते हैं। का नाम श्राभोग है। किसी-किसी प्रायश्चित्तकारने इसके आगे सातवें श्लोकमें अतिक्रम, व्यतिक्रम अनाचारके स्थान पर छन्न भंग नाम दिया है। आदि पांचों भेदांका स्वरूप आदि दिया गया है प्रायश्चित्त-शास्त्रकारोंके मतसे १ से लेकर २५ और तदनन्तर कहा गया है किअंश तकके व्रत-भंगको अतिक्रम, २५ से लेकर ५० त्रयोदश-व्रतेपु स्युर्मानस-शुद्धिहानितः । अंश तकके व्रत भंगको व्यतिक्रम, ५१ से लेकर ७५ प्रयोदशातिचारास्ते विनश्यन्त्यात्मनिन्दनात् ॥१०॥ अंश तकके व्रत भंगको अतिचार,७६ से लेकर ६६ त्रयोदश-व्रतानां स्वप्रतिपक्षाभिलाषिणाम् । अंश तकके व्रत-भंगको अनाचार और शत प्रतिशत प्रयोदशातिचारास्ते शुद्धयन्ति स्वान्तनिग्रहान् ॥११॥ व्रत-भंगको आभोग समझना चाहिए। त्रयोदश-बतानां तु क्रियाऽऽलस्यं प्रकुर्वतः । एक विचारणीय प्रश्न प्रयोदशातिचाराः स्युस्तत्त्यागान्निर्मलो गृही ॥१२॥ श्रावकके जो बारह व्रत बतलाये गये हैं, उनमें से त्रयोदश-व्रतानां तु छन्न भंग वितन्वतः । प्रत्येक व्रतके पाँच-पाँच अतिचार वतलाये गये हैं, प्रयोदशातिचाराः स्युः शुद्धयन्त योगदण्डनात् ॥१३॥ जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र अ०७, सू०२४ से सिद्ध है- प्रयोदशवतानां तु साभोग-व्रतभंजनात् । ___ "व्रत-शीलेषु पंच पंच यथाक्रमम्।' प्रयोदशातिचाराः स्युश्छन्न शुद्वयधिकानयात् ॥१४॥ ऐसी दशामें स्वभावतः यह प्रश्न उत्पन्न होता अर्थात् उक्त तेरह व्रतां में मानस-शुद्धिकी हानिहै कि प्रत्यक व्रतके पांच-पांच ही अतिचार क्यों रूप व्यतिक्रमसे जो तेरह अतिचार लगते हैं, वे बतलाये गये हैं ? तत्त्वार्थसूत्रकी उपलब्ध समस्त अपनी निन्दा करनेसे दूर हो जाते हैं। तेरह वतोंदिगम्बर और श्वेताम्बर टीकाग्रीके भीतर इस के स्व-प्रतिपक्षरूप विपयांकी अभिलापासे जो व्यतिप्रश्नका कोई उत्तर दृष्टिगोचर नहीं होता। जिन- क्रम-जनित तेरह अतिचार लगते हैं, वे मनके जिन श्रावकाचारोंमें अतिचारोंका निरूपण किया निग्रह करनेमे शुद्ध हो जाते हैं । तेरह व्रतोंके आचगया है, उनमें तथा उनकी टीकाओं में भी इस रणरूप क्रिया में आलम्य करनेसे जो तेरह अतिचार प्रश्नका कोई समाधान नहीं मिलता। पर इस प्रश्न- उत्पन्न होते हैं. उनके त्यागसे गृहस्थ निर्मल अर्थात के समाधानका संकेत मिलता है प्रायश्चित्त-विपयक अतिचार-जनित दोपसे शुद्ध हो जाता है। तेरह ग्रन्थों में जहां पर कि अतिक्रम व्यतिक्रम, अति- वनोंके अनाचाररूप छन्न भंगको करनेसे जो तेरह चार, अनाचार और आभोगके रूपमें व्रत-भंगके अतिचार होते हैं. वे मन, वचन. कायरूप तीनों पांच प्रकार बतलाये गये हैं। योगोंके निग्रह से शुद्ध हो जाते हैं। तेरह व्रतों के हालमें ही अजमेर-भण्डारसे जो 'जीतसार- आभोग-जनित व्रत-भंगस जो तेरह अतिचार उत्पन्न समुच्चय' नामक ग्रन्थ उपलब्ध हुआ है, उसके अन्त- होते हैं. वे प्रायश्चित्त-वर्णित नय-मार्गसे शुद्ध होते में 'हेमनाभ' नामका एक प्रकरण दिया गया है। हैं॥१०-१४|| इसके भीतर भरतके प्रश्नांका भ. वृपभदेवके द्वारा इस विवेचनसे सिद्ध है कि प्रत्येक व्रतके पांच उत्तर दिलाया गया है। वहां पर प्रस्तुत अतिचारों- पांच अतिचारोंमेंसे एक-एक अतिचार अतिक्रमकी चर्चा इस प्रकारसे दी हुई है जनित है. एक-एक व्यतिक्रम-जनित है, एक-एक -बत-गुण-शिक्षाणां पञ्च पञ्चैकशा मला. । अतिचार-जनित है, एक-एक अनाचार-जनित है अतिक्रमादिभेदेन पवर्षाष्टपच सन्ततः ॥६॥ और एक-एक आभोग-जनित है। उक्त सन्दर्भसे
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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