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________________ किरण] अतिचार-रहस्य [२२३ दूसरी बात यह भी सिद्ध हाती है कि प्रत्येक अति- है। जिस प्रकार अतिक्रमादिको बूढ़े बैलके ऊपर चारकी शुद्धिका प्रकार भी भिन्न-भिन्न है। इससे घटाया गया है, इसी प्रकार व्रतोंके ऊपर भी लगा यह निष्कर्ष निकला कि यतः व्रत भंगके प्रकार पांच लेना चाहिए। हैं, अतः तज्जनित दोष या अतिचार भी पांच ही इस विवेचनसे यह बात बिलकुल स्पष्ट हो हो सकते हैं। जाती है कि अतिक्रमादि पाँच प्रकारके दोषांकी प्रायश्चित्तचलिकाकटीकाकारने भी उक्त प्रकारसे अपेक्षा ही प्रत्येक व्रतके पाँच-पाँच अतिचार बतही व्रत-सम्बन्धी दापोंके पांच-पांच भेद किये हैं- लाये गये हैं। सर्वोऽपि व्रतदीप. पञ्चपष्ठिभेदो भवति । तद्यथा- श्रावक-धर्मका प्रतिपादन करनेवाले जितने भी अतिक्रमो व्यतिक्रमोऽतिचारोऽनाचारोऽभोग इति । ग्रन्थ हैं, उनमें मे व्रतोंके अतिचागेका वर्णन उपाएपामर्थश्चायमभिधीयते जरगवन्यायेन । यथा- सकाध्ययन और तत्वार्थसूत्र में ही सर्वप्रथम दृष्टि कश्चिजरगवः गहासस्यसमृद्धि-सम्पन्न क्षेत्रं गोचर होता है। तथा श्रावकाचारांमसे सर्वप्रथम समवलोक्य तत्सीमसमीपप्रदेशे समवस्थितस्तत्प्रति रत्नकरण्ड श्रावकाचारमं अतिचारोंका वर्णन किया स्पृहां संविधते माऽनि कमः । पुनविवरांदगन्तरास्यं गया है। जब हम नत्त्वार्थसूत्र वणित अतिचागेका संप्रवेश्य ग्राममेकं ममाददामीभिलापकालुप्यमाय उपासकाध्ययन सूत्रसे जोकि आज एकमात्र श्वेताव्यतिक्रमः । पुनरपि तद्-वृत्तिसमुल्लंघनमस्याति- म्बरांक द्वारा ही मान्य हो रहा है-तुलना करते चारः। पुनरपि क्षेत्रमध्यमधिगम्य प्रासमकं समा- हैं, जो यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि एकदाय पुनरस्यापमरणमनाचारः। भूयाऽपि निःशं- का दूसरे पर प्रभाव ही नहीं है, अपितु एकने दूसरेकितः क्षेत्रमध्यं प्रविश्य यथेष्टं संभक्षणं क्षेत्रप्रभुणा के आतचारोंका अपनो भाषामें अनुवाद किया है। प्रचण्डदण्डताडनखलीकारः आभोगकार आभाग यदि दनांके अतिचारोंमें कहीं अन्तर है, तो केवल इति । एव व्रतादिष्वपि योज्यम। भोगोपभोग-परिमाणवतके अतिचारोंमें है। उपास(प्रायश्चित्त-चूलिका. श्लो० ५४६ टीका) काध्ययन-सूत्रमें इस व्रतके अनिचार दो प्रकारसे भावार्थ-प्रत्येक व्रतके दाप अतिक्रम, व्यति- बतलाये हैं-भोगतः और वर्मतः। भोगकी अपेक्षा क्रम, अतिचार, अनाचार और आभागके भदसे वे ही पाँच अतिचार बतलाये गये हैं, जोकि तत्त्वार्थपांच प्रकारके होते हैं। इन पांचांका अर्थ एक बूढ़े सूत्र में दिये गये हैं। कर्मकी अपेक्षा उपासकाध्ययनबैलके दृष्टान्त-द्वारा स्पष्ट किया जाता है। में पन्द्रह अतिचार कह गये हैं. जोकि खरकर्मके जैसे कोई वढ़ा बैल धान्यसे हरे-भरे किमी नामसे प्रसिद्ध हैं, और सागारधर्मामृतके भीतर खतको देखकर उसके ममीप बैठा हुआ ही उसके जिनका उल्लेख किया गया है। खानकी मनमें इच्छा करे, यह अनिक्रम दोष है। यहाँ यह प्रश्न किया जा सकता है कि उपासकापनः बैठा बेठा ही बाढ़के किसो छिद्रसे भीतरको ध्ययनमें कमेकी अपेक्षा जा पन्द्रह अतिचार बतलाये मुंह डालकर एक ग्रास लनेको अभिलापा करे, यह गये हैं, उन्हें तत्त्वार्थसूत्र-कारने क्यों नहीं बतलाया? व्यतिक्रम दोप है। पुनः उठकर और खेतकी वाढको मेरी समझमे इसका कारण यह प्रतीत होता है कि तोड़कर भीतर घुसनेका प्रयत्न करना अतिचार तत्त्वार्थसूत्रकार "व्रत-शीलेपु पंच पंच यथाक्रमम्' नामका दोष है। पुनः खेतमें पहुँचकर एक पास इस प्रतिज्ञास बंधे हुए थे, इसलिए उन्होंने प्रत्येक घासको खाकर वापिस लौटना, यह अनाचार नाम- व्रतके पांच-पांच ही अतिचार बताये । पर उपासका दोष है । फिर भी निःशंकित होकर खेतके काध्ययन-कारने इस प्रकारकी कोई प्रतिज्ञा प्रतिभीतर घुसकर यथेच्छ घास खाना और खेतके चारोंके वर्णनके पूर्व नहीं की है, अतः वे पांचसे मालिकद्वारा डंडोंसे प्रबल आघात किये जाने पर अधिक भी अतिचारांके वर्णन करने के लिए स्वतंत्र भी घासका खाना न छोड़ना भोग नामका दोष रहे हैं।
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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