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________________ अनेकान्त वर्ष १४ अर्थात् भगवान के पित्तज्वर हो गया, शरीरमें जलन हैं। वनस्पतिके भी अङ्ग निम्न प्रकार माने गये हैं। जड़, होने लगी और खूबके दस्त होने लगे। पींद. पत्ते, फूल, फल । सुश्रु तमें प्रतिपादित उल्लेखमें भी इन रोगोंको जो दूर कर सके वह पौषधि हो सकती यहबतायागया है कि 'श्वेत-कापोती समूलपना भक्षयितव्या' है। मांस इस रोगके सर्वथा प्रतिकूल है। देखिए-पायुर्वेदके अर्थात् जड़ पत्तों सहित खानी चाहिये। शब्दसिन्धुकोष पृ.७०१ और •३६ में मांस व मछलीका पाठक विचार करें कि यथार्थ में कपोत या कपोती शब्दगुणधर्म इस प्रकार बताया है कि वह 'रक्तपित्तजनक तथा से और शरीर शब्दसे उस रोगोत्पत्ति नाशक प्रकरणमें उष्णस्वभाव है' मांस खानेका जिसे परहेज नहीं है ऐसा 'कपोती वनस्पति' का अर्थ लिया जायगा या कबूतरके हिंसक और और अवती भी ऐसे रोगके समय मांस खानेसे मांस का' .. परहेज करेगा, क्योंकि वह रोगवद्धक है. रोगके उपचारसे मायुर्वेद में सैंकड़ों वनस्पतियाँ ऐसी हैं जिनका नाम विरुद्ध है। भगवतीसत्रके उल्लेख में आये कपोत शन्द्रका प्राणीके प्राकार, रूप रज परसे उस प्राणी जैसा ही नाम अर्थ कबूतर नहीं है किन्तु कपोती एक वनस्पति कर रख दिया गया है । पर उससे प्रकरण तो प्राणीके खानेका जैसा कि निम्न प्रमाणसे स्पष्ट है, देखिए सुश्रुतसंहिता ना 32 नहीं, वनस्पति सेवनका है। पृष्ठ २१: प्रकरणवशादर्थगतिः शब्दका अर्थ प्रकरणके वश लगाना चाहिये। भोजनार्थी ___ श्वेत कापोती समूलपत्रा भक्षयितव्वा गोनस्य जगरा। कृष्ण कापोतीनां सनखयुष्ठिम् खण्डशः यदि भोजनके समय 'सैंधवमानय' अर्थात् 'सैधव लायो' कल्पयित्वा क्षीरे विपाच्य परिस्रावितभिहुतव्च । ऐसा कहे तो उस प्रकरणमें सैन्धवका अर्थ सैंधा नमक ही होगा 'घोड़ा' नहीं। यद्यपि 'सैंधव' शब्दका अर्थ सेंधा नमक सकृदेवापभुञ्जीत ॥ भी है और घोड़ा भी । यात्राके प्रसंग पर यदि वह वाक्य वनस्पती श्वेत-कापोती और कृष्ण-कापोती ऐसी दो। बोला गया होता तो सँधवका अर्थ 'घोड़ा' होता, नमक प्रकारकी कही गई है। बेत कापोतीका लक्षण इस ग्रन्थमें नहीं। इसी प्रकार कपोत शब्दका कबूतर भी अर्थ है और इस प्रकार बताया है: कापोत नामक वनस्पति भी। औषधिके प्रकरणमें उसका निष्पत्रा कनकाभाषा. मूलं द्वयं गुणसम्मिता। सर्पाकारा लोहितान्ता, श्वेत-कापोति रुच्यते ॥ औषधि अर्थ लिया जायगा कबूतर नहीं। अब आगे अर्थात् श्वेत-कापोती सुवर्ण-वर्ण बिना पत्तेकी, मूलमें देखिए कृष्ण कापोतीको 'रोमवाली' कहा है सो रोम तो दो अंगुल प्रमाण सर्पाकार, अन्तमें लाल रंगकी होती है। बालोंको कहते हैं और बाल पशु पक्षीके शरीरमें होते हैं कृष्णा-कापोतीका स्वरूप बताया है. पर क्या 'रोम' शब्द पढ़ कर उसे पक्षी समझ लिया जाय। सक्षीरां रोमशां मृद्वी, रसेनेचरसोपमाम् । कदापि नहीं, वहाँ तो सुश्र तकार स्वयं रोमवाली' कह कर एवं रूपरसाव्चापि. कृष्णाकापोतिमादिशेत् ॥ भी उसका अर्थ वनस्पति को पहिचान मात्र कहते हैं। जिसमें दूध पाया जाय, रोम वाली, नरम, गन्ने समान कापोती कहाँ पाई जाती हैं इस सम्बन्धमें सुश्रुतकार मीठा जिसका रस हो वह कृष्णा-कापोती है। लिखते हैं:कापोत या कापोती साधारणतया कबूतर और कबूतरीके कौशिकी सरितं तीा संजयानयास्तु पूर्वतः। अर्थमें प्रसिद है, पर सुश्त नामक आयुर्वेद ग्रन्थके उन क्षिति प्रदेशो वाल्मीकै राचितो योजनत्रयम् । रलोकोंमें वर्णित कापोती क्या वनस्पति (औषधि) के विज्ञेया तत्र कापोती श्वेता वल्मीक मूर्धसु । लिये नहीं पाया है ? पाठक विचार करें। अर्थात् श्वेत कापोती-कौशिकी नदीके पार संजयंती'कवोय-शरीरे' इसमें 'कपोत-शारीर' शब्दसे जड़ और के पूर्व योजनकी भूमि है जो सर्पकी बांवियोंसे विस्तृत है, पत्ते समेत कपोत फल ऐसा अर्थ है। 'शरीर' शब्द वनस्पति वहाँ बौषियोंके ऊपर पैदा होती है। प्रकरणमें फल, पत्र, जद सबको ले लेनेके अर्थमें प्रयुक्त उ दरणसे यह दर्पणकी तरह स्पष्ट है कि औषधिहोता है। अनेक औषधियों में यह बताया गया है कि वह के प्रकरणमें 'कापोती' का अर्थ उक्त वनस्पति है, 'शरीर' 'पञ्चांग खेनानाहिसा और शरीर शब्द एकार्थ वाचक का अर्थ समूखपत्रांग है न कि 'कबूतर के शरीर'।
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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