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फरवरी'५७]
भगवान बुद्ध और मांसाहार
उपयुक उद्धरणसे यह स्पष्ट है कि बुद्ध मांस और और जिस धर्मके पालन करने वाले गृहस्थोंके लिए मांसमथका सेवन नहीं करते थे। फिर थोड़ी देरके लिये यह मचका परित्याग अनिवार्य है, क्या उस धर्मके धारक और मान भी लिया जाय, कि पीछे उन्होंने अपनी उक्र तपस्विता- अहिंसाके पाराधक प्रमोंके द्वारा क्या स्वयं मांसाहार को बोड़ दिया था और मध्यम मार्गको स्वीकार कर मांसा- संभव है। दिका सेवन करने लगे थे, तो भी उनके समर्थनमें या उनके इतना सब कुछ होते और जानते हुए भी कौशाम्बी
कर जीने भ. महावीरको भी मांसाहारी सिद्ध करनेका निध महत्वको नहीं गिरने देनेके लिये श्रीकौशाम्बीजीने 'जैन जा
प्रयास किया है। वे अपनी उसी पुस्तकके पू०२५ पर श्रमणोंका मांसाहार' शीर्षक देकर जो यह लिखा है कि
लिखते हैं'जैन सम्प्रदायके श्रमण भी मांसाहार करते थे। यह तो
'अब तो इस सम्बन्धमें भी प्रचुर प्रमाण उपलब्ध उनका जैन साधुओं पर एकदम असत्य दोषारोपण है और
हो गये हैं कि स्वयं महावीर स्वामी मांसाहार करते थे।' यह लेखकके अति कलुषित हृदयका परिचायक है।
कौशाम्बीजीने श्वेताम्बरीय भगवती सूत्र आदिके कुछ ___संसारके बड़े-बड़े विद्वानोंने एक स्वरसे यह स्वीकार
अवतरण देकरके अपने पक्षकी पुष्टि करनी चाही है। पर किया है, कि जैनियोंके अहिंसा धर्मकी छाप वैदिक धर्म पर
धम पर उन शब्दोंका वह अर्थ कदाचित् भी नहीं है जो कि पड़ी है और उसके ही प्रभावसे याज्ञिक हिंसा बन्द हुई, औशाखी जीने किया है। भगवतीसूत्रका वह अंश इस उस हिसा धर्मके मानने वाले साधुनोंकी तो बात ही दूर करे है. गृहस्थ तक भी मांमका भोजन तो बहुत बड़ी बात है, तं गच्छहणं तुम सीहा, मेढियगामं नगरं उसके स्पर्श तकसे परहेज रखते हैं। गृहस्थोंके जो आठ रेवतीए गाहावतिणीए गिहे। तत्थ णं रेवतीए मूलगुण बतलाये गये हैं, उसमें स्पष्ट रूपसे मथ, मांस गाहावतिणीए ममं अट्ठाए दुवे कबोय सरीरा और मधुके सेवनका त्याग आवश्यक बतलाया गया है। उवक्खडिया, तेहिं नो अट्ठो। अस्थि से अन्नपारित यथा
यासिए मज्जारकडएकुक्कुडमंसए त आहराहि, मद्य-मांस मधुत्यागैः सहाणुव्रत पंचकम्। एएवं अट्ठो।' अष्टौमूल गुणानाहुहिणां श्रमणोत्तमाः॥
अर्थात् जब भ. महावीरको गोशालकके द्वारा छोड़ी अर्थात् मद्य, मांस और मधुके त्यागके साथ-साथ गई तेजो लेश्यासे सारे शरीरमें जलन होने लगी, तब अहिंसादि पांच अणुव्रतोंको धारण करना, ये गृहस्थोंके उन्होंने अपने सिंह नामक शिष्यसे कहापाठ मूल गुण महान् श्रमणोंने बतलाये हैं।
'तुम मेंढिय ग्राममें रेवती नामक स्त्रीके पर जामो, जिस सम्प्रदायके श्रमण अपने अनुयायी गृहस्थोंको सानो कबोट शरीर' बनाये मांस न खानेका उपदेश देते हों, वे क्या स्वयं मांस भोजी हो ,
लाना, किन्तु 'मार्जारकृत कुक्कुट मांसक' लाना । उससे सकते हैं ? कभी नहीं, स्वप्नमें भी नहीं।
मेरा रोग दूर हो जायगा। और भी देखिए । आचार्य समन्तभद्रने अपने उसी उक्त उद्धारणमें पाये कपोत मादि शब्दोंका क्या रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें जिनधर्मको स्वीकार करने वालोंके वास्तविक अर्थ है, इसके लिए मार्चके जैन सन्देशमें लिए मद्य, मांस और मधुका त्याग आवश्यक बताया है। प्रकाशित निम्न अंश मननीय हैयथा
कपोत' 'मार्जार' 'कुक्कुट' और 'मास' ये चारों शब्द सहति परिहरणार्थ क्षौद्र पिशितं प्रमाद परिहृतये। वनस्पतिवाचक शब्द है, बसपाणीवाचक नहीं। श्वेताम्बर मद्यं च वर्जनीयं जिनचरणौ शरण मुपयातैः॥ सूत्रके अनुसार जो रोग भगवान् महावीरको बताया जाता है
प्रति जो लोग जिन भगवानके चरणोंकी शरणमें वह रोग क्या था, यह विचार करें, और फिर यह विचार जाना चाहते हैं, उन्हें इस हिंसासे बचने के लिए मांस करें कि उक्त रोगकी औषधि क्या हो सकती है, और मधका, तथा प्रमादके परिहारके लिए मयका याव- 'पित्तज्जरं परिगण्य सरीरे दाह वतीए या वि विहरह ज्जीवन के लिए परित्याग करना चाहिए।
भवियाई लोहिय बच्चाई पि पकरे।' जिस धर्मकी नींव ही अहिंसा के आधार पर रखी गई है
(भग सूत्र -. १८९)