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________________ वर्ष १४ ] लिये तिरुक के निम्नलिखित श्लोक ही सन्देह निवृत्तिके लिए पर्याप्त है। : मथिलापुरी निन्द्रबरयाचनउम परिन मलर पोडिलमन्द्र रत्तर पूवीण्डन्द रविलार विलिन कोटि मिनियन्दव श्रमणगिरि चलें अमरापति इन्द्राणि यातु कन्द्रवर कविलाय मेनुन्हिरु मलै मेलु किन्द्रवर गणनायकर चेन्द्रमिल मलेनायकर चेम्पोनि लिरिल कुचिन गिरियालववर चम्पैंय रेनवाल निनेन्दुकाल विनेये तुलममन्देदे इस स्तोत्रमें दक्षिण नायक दिपर्यंत नेमिनाथ भगवान् को तिरुकलंचक आचार्यने नमस्कार किया, ऐसा बनाया है। भगवान नेमिनाथ कृष्ण भाई कृष्ण चचेरे थे । छोटे होने पर भी दोनों समकालीन थे। भगवान नेमिनाथ और श्रीकृष्ण इन दोनों का जीवन चरित्र हरिवंशपुराण में विस्तारपूर्वक दिया हुआ है। बाई तीर्थंकर भगवान् नेमिनाथने वृषभदेव द्वारा कहे गये धर्म-मार्गका श्रनुष्ठान कर कठिन तपश्चरण द्वारा मोन-रूपी लक्ष्मीको प्राप्त किया था | इनका काल भी पहले प्रगत्तियरका काल ही होगा थोर पहले अगतियरको भगवान नेमिनाथकं धर्मोपदेश सुनने का अवसर मिला होगा। इसलिए श्रगत्तियरने पोदिन निम करते समय अपने देश में विद्यमान arge कर भगवान नेमिनाथका चिन्ह बनाया होगा । इसलिए तिrajass रचियता जहां २ भगवान नेमिनाथके मन्दिर हैं उन मग्रिलापुर, दीपगुडो, निम्मल, चिनगिरि चम्पे तीर्थस्थानों का वर्णन करते समय पहले गतियरके द्वारा पूज्य नेमिनाथ भगवान जहां विराजमान है उस पोदिपर्वतका जगतको अच्छी तरह बनानेक लिए मिलनाकडे नागसेन है। इन वर्णनों स्पष्ट अवगत होता है कि जैनधम प्रथम रिकामे ही पूरे तमिल देशमें फैला हुआ था। जैन मुनियोंक निवासस्थान, कलाभवन, धर्मभवन यादि बहुसंख्या में थे । उपर्युक्त वर्णनोंसे पांड्यंदेश और मदुरस्त्र में जैनधर्मका अच्छा प्रभाव था यह स्पष्ट शा होता है। पांड्यदेशकी राजधानी मदुराके चारों ओर जो पहाड़ है उनमें जैनमुनियोंका निवास था यह भी ऊपर कहा जा चुका है। १२६ श्रमणगिरि मानव सभ्यतामें ज्ञान और चारित्रका बहुत बड़ा महत्त्व । है ये नींव है जिसके ऐसे मम्यदर्शन मम्यान और सम्यग्वा रत्र इन श्राभूषणोंसे जनताको अलकृत करनेवाले मुनियोंके पर्वतोंमें भ्रमणागिरिका महत्वपूर्ण स्थान है। भ्रमण का अर्थ - भगवान् वृषभदेव द्वारा बनाये गये मार्गका अनुगमन करनेवाला होता है यह पहले ही बताया जा चुका है। तोलकाप्यम् और तिरुक्कुरल में भी यही कहा गया है । इन महामुनियों को ही जनता ' कडवुन " अर्थात् ईश्वरके नामसे पुकारती है। इस प अनेक तपस्वियोन धर्मकी वृद्धि की। इसलिए इसगिरिका नाम 'अमर' पड़ा। यह पसरा के पश्चिम पांच मील एवं 'कंपन' जाने यय-मार्ग नामक एक छोटे गांवपाय है। पीन यः पुण्य पर्वत बहुत प्राचीन काल सुनियोंका निवासस्थान रहा है। ल श्रादि स्थानोन सिकार ब्राह्मी लिपिक शिलालेख मिलते है उसी प्रकार यहां भी आमी लिपि शिला लेख मिलते हैं। इसलिए इस पर्वतका नाम ई. ए. दूसरी या या तीसरी शताब्दी पूर्व से ही श्रमगिरि पठा होगा, ऐसा शिलालेखक श्राविष्कारकों का अभिमत है। नकल प्राचीन समयसे ही चले के कारण इस देश के राजा ने इतने विशाल स्थान पर्वत, गुफाएं और मन्दिर विश्वका पूर्व विद्याओं में नियुम जैनमुनियों को ही सौप दिये और चेर, चोल, पांड्य, पल्लव राजाओं की परम्पराक इतिहासकी खोज करने वाले ऐतिहासिकॉन भी उपयुक्र बानकी ही पुष्टि की है। इसलिए पांड्यराजाथोक तीर्थक्षेत्रों में श्रनगिर भी एक मुख्य क्षेत्र है। इस रिकी बनावट, इससे सम्बन्धित छोटी पहाड़ियां, गुफा, बिस्तर, मूर्ति, शिलालेख श्रादिका विवरण भारतीय शिलालेख अन्वेषण में निपुण श्री बहादुर चन्द्र छाबड़ाके मतानुसार इस प्रकार है - मदुरा पश्चिम में करीब पांच मील की दूरी पर एक साथ अनेक पहाड़ियां मिली हुई सी मालूम पड़ती है उसीको श्रमणगिरिके नामसे पुकारते हैं। यह पूर्व पश्चिम तक करीब दो मील लम्बा है। पहाडियों का दक्षिण-पश्चिमी किनारा कीलकुयिलकुडी के ठीक सामने पड़ता है। उत्तर पश्चिमी किनारा मदुालुके उत्तर पलनी एक भागमें त पट्टी श्रीप श्रालमपट्टी के नाम से प्रसिद्ध चिट्ट, रके पास है।
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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