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________________ मात्मार्थी, आजन्मब्रह्मचारी, अध्यात्म-रसिक, अध्यात्म प्रसारक श्री कानजी स्वामीको सेवामें अभिनन्दन-पत्र आत्मार्थिन ! पारम-धर्मके परम पाराधक और प्रसारक होते हुए भी आपने सम्यग्नर्शनकी विशुद्धिके साधन-भूत सिन्द्वक्षेत्रोंकी बदनार्थ एक विशाल सबके साथ यात्रा प्रारम्भ की और परम तीर्थाधिराज सम्मेदशिखर, पावापुर, राजगिर, चम्पापुर धादि अनेकों तीर्थस्थानोंकी वंदना करते हुए इस दिजीमे पदार्पण किया है, जिसे स्वतन्त्र भारतकी राजधानी होनेका गौरव प्राप्त है। अपनी खोज-शोधके लिये प्रख्यात, प्रसिद्ध पुरातत्त्वविद्, साहित्य तपस्वी, प्र.मा. जुगलकिशोर जी मुख्तार, 'युगवीर' द्वारा संस्थापित इस वीरसेवामन्दिरमें ठहर कर आपने हम लोगों पर जो अनुग्रह किया है वह हम सबके लिये परम हर्षकी बात है। आजन्म ब्रह्मचारिन् । भ० नेमिनाथके पाद-पदमसे पवित्र हुए और वीरवाणीके ममुद्धारक श्रीधरसेनाचार्यकी तपोभूमि होनेके कारण अपने 'सुराष्ट्र' नामको सार्थक करने वाले सौराष्ट्र देशमें आपने जन्म लिया। गृहस्थाश्रममें सर्व साधन सम्पच होते हुए भी आपने बाल्यकालसे ही ब्रह्मचर्यको अंगीकार किया, और अत्यन्त अल्प वयमें संसारसे उदास होकर साधु दीक्षा ग्रहण की। पूरे २० वर्ष तक स्थानकवासी जैन सम्प्रदायमें रह कर श्वेताम्बर आगम-सूत्रों-प्रन्योंका विशिष्ट अभ्यास किया, और अपने सम्प्रदायके एक प्रभावक वक्ता एवं तपस्वी बने । उस समय अनेकों राजे-महाराजे और सहस्रों जेन आपके परम भक्त थे, तथा आपको 'प्रभु' कह कर वंदना-पूर्वक साष्टाङ्ग नमस्कार करते थे। अध्यात्म-रसिक ! श्वे. जैन श्रागम-सूत्रोंके पूर्ण अवगाहन करने पर भी आपकी प्राध्यात्म-रस-पिपासा शान्त न हो सकी। सौभाग्यसे दो सहस्र वर्ष पूर्व प्रा. कुन्दकुन्द-निर्मित परम अमृतमय समयमार आपके हस्तगत हुआ, आपने अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टिसे उपका स्वाध्याय प्रारम्भ किया। स्वाध्याय करते ही आपको यथार्थ दृष्टि प्राप्त हुई और विवेक जागृत हुआ। आपने अनुभव किया कि अाज तक मैंने शालि-प्राप्तिके लिये तुष-खंडनमें ही अपने जीवनका बहु भाग बिताया है। उस समय अपके हृदयमें अन्तर्द्वन्द मच गया। एक ओर प्रापके सामने अपने सहस्रों भकों द्वारा उपलब्ध पूजा-प्रतिष्ठा प्रादिका माह था, और दूसरी ओर मत्यका आकर्षण । इन दोनोंमेंसे अपनी पूजा-प्रतिष्ठाके व्यामोहको ठुकराकर आपने दिगम्बर धर्मको स्वीकार किया, और महान साहस और दृढ़ताके साथ विक्रम संवत् १६ में चैत्र शुक्ला त्रयोदशीको वोर जयन्तीके दिन बीरता-पूर्वक अपने वेष-परित्यागकी घोषणा करदी। घोषणा सुनते ही सम्प्रदायमें खलबली मच गई और नाना प्रकारके भय दिखाये गये । परन्तु आप अपने निश्चय पर सुमेरुके समान अटल और अचल रहे । तबसे आप अपने आपको आत्मार्थी कह कर प्रा. कुन्दकुन्दके प्रति गहन आध्यात्मिक ग्रन्थोंकी गूढतम प्रन्थियोंके सूक्ष्मतम रहस्यका उद्घाटन कर कुन्दावदात, अमृतचन्द्र-प्रस्यूत, पीयूषका स्वयं पान करते हुए अन्य सहस्रों अध्यात्म-रस-पिपासुनोंको भी उसका पान करा रहे हैं और अत्यन्त सरल शब्दों में अध्यात्म तत्त्वका प्रतिपादन कर रहे हैं। . आत्म-धर्म-पथिक। जिस सौराष्ट्रमें दि० जैनधर्मका प्रभाव-सा हो रहा था, वहाँ आपके प्रवचनोंको श्रषण कर सहस्रों तत्त्व-जिज्ञासुत्रोंने दि. जैनधर्मको धारण किया, सैकड़ों नर-नारियों और सम्म घरानोंके कुमारकुमारिकाओंने आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत अंगीकार किया। तथा जिस सौराष्ट्रमें दि० जैन मन्दिर विरल ही थे, वहाँ आपकी प्रेरणासे २० दि. जैन मन्दिरोंका निर्माण हो चुका है और इस प्रकार अापने धर्मकी साधना और प्रारमाकी माराधनाके साधन वर्तमान और भावी पीढ़ी के लिये प्रस्तुत किये हैं। अध्यात्मप्रसारक ! कुछ शताब्दियोंसे जैन सम्प्रदायके प्राचार-व्यवहारमें जब विकार प्रविष्ट होने लगा और त्रिवर्णाचार एवं चर्चामागर जैसे ग्रन्थ प्रचारमें आने लगे तब १९वीं शताब्दीके महान विद्वान् पं. टोडरमलजी ने उस दषित व्यवहारसे जनताके बचाव के लिये मोक्षमार्ग प्रकाशकी रचनाकर जैनधर्मकं शुद्ध रूपकी रक्षा की। उनके परचात् इस बीसवीं शताब्दी में मवहार-मूढ़ता-जनित धर्मके विकृत स्वरूपको बतलाकर 'प्रात्म-धर्म' के द्वारा उससे बचनेक मागका माप
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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