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________________ शान्तिकी खोज (प्रो० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य एम० ए०) राजकुमारी मल्लिका अनिन्द्य सुन्दरी थी । रति भी एक एक करके राजकुमारोंको उन कमरों में आमन्त्रित किया अकचका गई थी उसको रूपछटा देखकर | उसके रूप-लावण्य जिनमें वे मूर्तियां सुन्दर वस्त्राभूषणोंसे सजित हो अलग-अलग और सौंदर्यकी चर्चा इन्द्रकी अप्पराएँ भी करती थीं । खड़ी थीं। उसने प्रत्येक राजकुमारको उनके अंग-प्रत्यंगके उसका शरीर जितना सुन्दर था हृदय भी उतना ही स्वच्छ लावण्यरसका पान कराके कहा कि आप जिस प्रकार इसके अन्तःकरण उतना ही पवित्र और आत्मा उतनी ही निर्मल बाह्यरूप पर मुग्ध हो क्या उसी तरह इसके अन्तरंगको भी थी। सांसारिक भोगोंमें उसकी जरा भी प्रासक्ति नहीं थी। चाहते हो या केवल बाह्यछटाके ही लोलुपी होराजकुमारोंने वह बचपनसे ही जगत्की क्षणभंगुरता, देहकी नश्वरता और जब यह कहा कि हम तो इस रूप-माधुरी पर पूरी तरह विभूतिकी चंचलताका विचार कर प्रारमनिमग्न रहती थी। निछावर है तो राजकुमारीने एक-एक राजकुमारके मामने यौवनने अंग-अंगमें कब प्रवेश किया इसका पता यद्यपि एक एक मूर्तिका ढक्कन क्रमशः खोले । ढक्कन खुलते ही कुमारीको नहीं था, पर उस लौ पर शलभ श्रा-आकर मॅडराने सड़ा गला अन पानी बाहर भरभरा पड़ा और समस्न प्रकोष्ठ लगे। अनेकों राजकुमार उस पर अपनेको निछावर करनेके अपह्य दुर्गन्धसे भर उठा । राजकुमार अपनी नाक दबाकर लिये उसकी कृपाकोरके भिखारी बन रहे थे। ज्योंही भागने लगे, त्योंही कुमारीने उनसे कहा ठहरो अभी रूपसी मल्लिकाने देखा कि मेरा यह सौंदर्य स्वयं मेरे तो इन मूर्तियोंका एक ही ढक्कन खोला गया है तो भी लिये भार हो रहा है और मां-बाप तथा बन्धुजन चिन्तित श्राप सब नाक-भौं सिकोड़ कर विरक्रिसे भर उठे हैं । कदाहो रहे हैं। उसने जब यह समझा कि उसका ही रूप उसे चित यह पूरी मूर्ति अनावृत कर दी जाय तो..। सच खाये जा रहा है तो उसने एक दिन पितासे कहा कि जो-जो मानिए जो भोजन, पानी गत मप्ताह मैंने लिया है वही इन राजकुमार मुझसे विधाह करना चाहते हैं, उन सबको बुला मूर्तियोंमें डाला गया है। क्या इस चर्म शरीरकी बहुत इये । मैं स्वयं उनसे बात करके निश्चय करूंगी। स्वयंवरका दिन निश्चित हुा । कुमारीने पाठ दिन अच्छी दशा है। अपनी वामनाओं, कामनाओं और अभिपहले ठीक अपनी ही प्राकृति और रूपकी अनेक पोली लाषाओं के प्रतिच्छाया स्वरूप इस मुग्धा योषा रूपमी रति स्वर्णमूर्तियां बनवाई। जो भोजन पानी वह लेती थी वही अंगना कामिनी, विलासिनी और रामाका अन्तःसार दवा ! भोजन पानी उन मूर्तियोंके भीतर ढक्कन खोलकर वह विषयकीट, जरा जी भरकर इसे देखो, चाटो, सू'धो और डालती जाती थी। छुयो। समस्त राजकुमार सिर नीचा किये सुन रहे थे और नियत दिन पर सब राजकुमार शोभा-सज्जाके साथ उप- लोगोंने देखा कि कुमारी मल्लिका चुपचाप आत्म-साधनाके स्थित हुए। सबके मन प्राशासे उत्तरंग हो रहे थे। कुमारीने पथकी पथिक वन शान्तिकी खोजमें जा रही थी। निर्देश कर रहे हैं । अापके तत्वावधानमें आज तक तीन लाख पुस्तकोंका प्रकाशन हुआ है जिससे लोगोंको अपनी 'मूलमें भूल' ज्ञात हुई है। अध्यात्म-संघनायक! आपने सोनगढ़में रहकर और श्रमण-संस्कृतिके प्रधान कार्य ध्यान-अध्ययनको प्रधानता देकर उसे वास्तविक अर्थमें श्रमण-गढ़ बना दिया है। श्राप परम शान्तिके उपासक हैं और निन्दा-स्तुतिमें समवस्थ रहते हैं। आपके हृदयकी शान्ति और ब्रह्मचर्यका तेज आपके मुख पर विद्यमान है। आप समयके नियमित परिपालक हैं । भगवद्भक्ति पूजा करनेकी विधि, प्राध्यात्मक-प्रतिपादन-शलो और समयकी नियमितता ये तीन श्रापकी खास विशेषताएं हैं। अध्यात्मका प्रतिपादन करते हुए भी हम आपकी प्रवृत्तियों में व्यवहार और निश्चयका अपूर्व मम्मिश्रण देखते हैं। आपके इन सर्व गुणोंका प्रभाव आपके पार्श्ववर्ती मुमुचुत्रों पर भी है । यही कारण है कि उनमें भी शान्ति-प्रियता और समयकी नियमितता दृष्टिगोचर हो रही है। आपकी इन्हीं सब विशेषताओं से प्राकृष्ट होकर अभिनन्दन करते हुए हम लोग अानन्द-विभोर हो रहे हैं। हम हैं आपके-चीर-सेवा-मन्दिर, सदस्य, भा. दि. जैन परिषद सदस्य
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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