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________________ अतिथिसंविभाग और दान (श्री पं० हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्री) [थावकके बारह व्रतोंमें 'अतिथि संविभाग' नामका बारहवाँ व्रत है और श्रावकके छह प्रावश्यकोंमें 'दान' यह छठा मावश्यक है। इन दोनोंमें क्या अन्तर है तथा इन दोनोंका प्रारम्भमें क्या रूप रहा और पीछे जाकर दोनोंका क्या रूप हो गया, यह बतलाना ही इस लेखका उद्देश्य है। -सम्पादक] भारतवर्ष में प्राचीन कालसे ही गृहस्थोंके भीतर संस्कृत साहित्यमें 'अत्' धातु निरन्तर गमन दान देनेकी प्रथा रही है । इसके दो कारण रहे हैं- करनेके अर्थमें प्रयुक्त होती है । तदनुसार जो अपने एक तो यह कि जिन लोगोंने आत्म-कल्याण करनेकी संयमकी रक्षा करते हुए निरन्तर गमन करता है, भावनासे गृह-जंजालका परित्याग कर दिया और जो अर्थात् घर बनाकर किसी एक स्थान पर नहीं रहता अहर्निश आत्म-साधनामें निरत रहने लगे, उनकी है उसे 'अतिथि' कहते हैं । अथवा जिसके अष्टमी, साधनामें सहायक होना गृहस्थोंने अपना अति श्राव- चतुर्दशी आदि पर्व-तिथियोंका विचार नहीं है, अर्थात् श्यक कर्त्तव्य समझा और इस प्रकार घर-बार छोड़कर सर्व पापोंका सर्वदाके लिए परित्याग कर देनेसे जिसके साधु-जीवन बिताने वालोंके भोजन-पानादिका सभी तिथियां समान है,उसे 'अतिथि' कहते हैं। इन उत्तरदायित्व उन्होंने अंगीकार किया । प्रकारान्तरसे दोनों ही निरुक्तियोंके अनुसार 'अतिथि' शब्दका अपनेको घर-बार छोड़ने में असमर्थ पाकर एवं गृह- वाच्य गृह-त्यागी और संयम-धारक साधु-साध्वियोंसे त्यागी पुरुषोंके धर्म-साधनमें कारित और अनुमो- रहा है । पीछे पीछे 'अतिथि' शब्दका उक्त यौगिक दनासे सहायक बनकर साधु बननेकी अपनी भावना- अर्थ गौण हो गया और वह वीतराग धर्मके धारण को उन्होंने कायम रखा । दूसरा कारण यह रहा है कि करनेवाले साधु-साध्वियोंके अतिरिक्त श्रावक और गृहस्थके न्यायपूर्वक भाजीविका करते हुए भी चक्की श्राविकाओं के लिए भी प्रयुक्त होने लगा । जैसा कि चलाने, धान्यादि कूटने, पानी भरने, झाड़-बुहारी इस उल्लेखसे स्पष्ट हैदेने और भोजनादि बनाने में अगणित जीवोंकी हिंसा "प्रतिथयः वीतरागधर्मस्थाः साधवः साध्व्य: श्रावकाः होनेसे महान् पापका संचय होता रहता है। उस पापकी श्राविकाश्च । (धर्मबिन्दु, वृ० १५१ ) निवृत्तिके लिए भी गृहस्थने प्रतिदिन दान देना अपना इसी प्रकार संविभाग पदका भी अर्थ प्रारम्भमें कर्त्तव्य माना। इस प्रकार दान देनेकी भावनामें हमें साधुजनोंको खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय रूप चार स्पष्टरूपसे उक्त दो कारण ज्ञात होते हैं। प्रकारके आहार देनेसे रहा है। जैसा कि निम्न जैनाचार्योंने प्रथम कारणको ध्यानमें रखकर उसे प्रकारसे स्पष्ट है'अतिथिसंविभाग' नाम दिया और उसे श्रावकका प्रशनं पेयं स्वाद्य खाद्यमिति निगद्यते चतुर्भेदम् । बारहवाँ व्रत बतलाया । दूसरे कारणको लक्ष्यमें रस्त्र प्रशनमतिविधेयो निजशक्या संविभागोऽस्य ।। उसे 'दान' कहा, और उसे श्रावकके छह आवश्यकों (अमितगति श्रावकाचार, ६, ६६) में परिगणित किया। अतिथिको देनेके लिए गृहस्थ श्रावकके छह आवश्यकोंमें दान नामक जो छठा अपने भोग्य पदार्थोंमेंसे जो समुचित विभाग करता यावश्यक बतलाया गया, उसके द्वारा गृहस्थको यह है उसे अतिथिसंविभाग कहते हैं । शास्त्रोंमें 'अतिथि' उपदेश दियागया कि वह साधुजनोंको प्रतिदिन आहार शब्दकी निरुक्ति दो प्रकारसे की गई है। जो कि इस देनेके अतिरिक्त बीमारीकी अवस्थामें औषधिका भी प्रकार हैं दान करे । भयभीतोंको अभयदान दे और ज्ञानके "संयममविनाशयन्नततीत्यतिथिः । अथवा नास्य तिथि- इच्छुक जनोंको ज्ञानदान भी देवे। इस प्रकार गृहस्थरस्तीत्यतिथिः ।।" (सर्वार्थसिद्धि, प्र०७. सू० २१) के दान आवश्यकके अन्तर्गत माहारदान, औषधि
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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