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वकार-मत्र-माहात्म्य
घण-घाइ-कम्म-मुक्का अरहंता तह य सब्य सिद्धा य । सट्ठिसयं विजया पवराणं जत्थ सासमो कालं। पायरिय उवजमाया पवरा तह सव्यसाहणं ॥१॥
तस्थ वि जिण-णवयारो पढिज्जह परम-पुरिसेहि ॥१३॥ एयाण णमोकारो पंचरहं पंच-जमखण-धराणं ।
इराषएहि पंच ह पंचहि भरएहि सो वि पडिजति । भषियाण होइ सरण संसारे संसरंताणं ॥२॥
जिण-णवयारो एसो सासय-सिव-सुक्ख-दायारो ॥ उड्ढमह-तिरियजोए जिण-णवकारो पहाणो णवरं । जेण पुरं तेण (?)हमा वयारो पाविमो कयत्येण । पर-सुर-सिव-सुक्खाणं कारणयं इस्य भुवणम्मि ॥३॥
सो देवलोग गंतु परमपयं तं पि पावेइ ॥१६॥ तेण इमो णिचंचिय पढिजइ सुत्त ट्रिएहि अणवरयं ।
एसो प्रणाइकाले अणाइजीवो प्रणा जिणधम्मो ।
सहयावि ते पढ़ता एसोविय जिण-णमोयारो ॥१६॥ होई चिय दुइ-दलणो सुह-जणी भवियलोयस्स ॥२॥
जे के वि गया मोक्खं गच्छंनि य के वि कम्म-खल-मुक्का । जाए वि जो पदिज्जइ जेण व जायस्स होइ फल-रिद्धी।
ते सम्बे विय जाणसु जिण-णवयारस्स भावेण ॥१७॥ अवसाणे वि पढिज्जइ जेड मुनो सुग्गई जाई ॥५॥
इय पसोणत्रयारो भणियड सुर-सिद्ध-खबर-पमुहेहि । भावइहि वि पतिज्जइ जेण व लंघेइ प्रावह-सयाह ।
जो पढइ भत्तिजुत्तो सो पावह सासयं ठाणं ॥१८॥ रिद्धीहि वि पतिज्जह जेण वसा जाह वित्थारं ॥६॥
अडवि-गिरि-राय-मज्झे भयं पणासेइ चितिमो संतो । गर-सुर हुति सुराणं विज्जाहर-नेय-सुर-वरिंदाणं। रक्खद भविय-सयाह माया जद्द पुत्त-हिंभाई ॥१६॥ जाण इमो शवयारो सासुन्व (हारुम्व) पट्टियं कंठे ॥७॥ र्थमेइ जलं जलणं चिंतियमित्तण जिण-णमोयारो। जह पहिणा दट्ठाणं गारुडमतो विसं पणासेइ ।
अरि-चोर-मारि-राव-घोरुवसगं पणासे ॥२०॥ तहणवकारो मंतो पाव-विसं णासए सेसं ॥८॥
यो किंचि तह य पहवह डाइणि-घेयाल-रिक्ख-मारि-भयं । किं एण महारयणं किंवा चितामणिब्ध गवयारो।
गावयार-पहावेणं णासंति ते सयल-दुरियाह ॥२॥ किं कप्पदुममरिसो णहु बहु ताणं पि अहिययरो॥
सयल-भय-वाहि-तक्कर-हरि-करि-संगाम-विसहर-भयाइ ।
णासति तक्खणेणं जिण-णवयारो पहावेणं ॥२२॥ चिंतामणि-रयणाई कप्पतरू एक्क जम्म सुह-हेऊ ।
हियइ-गुहाइ णवकार-केमरी जेण संठिमो शिवं । णवकारो पुणु पवरो सग्गपवग्गाण दायारो॥१०॥
कम्मट्ट-गठि-गय-घट्टथट्टयंताण परणट्ट ।२३॥ जं किंचि परमतच्चं परमप्पयकारणं पिजं किंवि।
तव-संजम-णियम-रहो पंच-णमोकार-सारहि शिरुत्तो। तस्य इमो णवकारो माइज्जइ परमजोईहि ॥१॥
याण-तुरंगम-जुत्तो णेह फुरं परमणिग्वाणं ॥२॥ जो गुणह लक्खमेगं पूयाविहिपण जिण-णमोक्कारं ।
जिण सासणस्स सारो चउदस-पुब्बाइ जो समुद्वारो। तित्थयरणामगोयं सो बंधहणस्थि संदेहो ॥१२॥
जस्स मणे णवयारो संसारो तस्स किं कुणह ॥२५॥ जैन वाङमयमें णमोकार या नमस्कार-मंत्रका वही स्थान है, जो वैदिक वाङमयमें गायत्री-मंत्रका है। इस मंत्रमें क्रमशः अरिहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु इन पंचपरमेष्ठियोंको नमस्कार किया गया है। फलकी दृष्टिसे णमोकार-मंत्रका स्थान गायत्री मंत्रसे महस्र-कोटि-गुणित माना गया है, यह बात उपर दिये गये पमोकारमन्त्र-माहात्म्यसे प्रकट है। यह णवकार-मन्त्र-माहाम्य नामक स्तोत्र अजमेर-शास्त्र-भंडारके एक गुटकेसे उपलब्ध हुआ है। इसके रचयिताने एमोकार मन्त्रको अनादिमूलमन्त्रके नामसे सक्रिक सिद्ध कर उसे जिन-शासनका सार और चौदह पूर्व-महार्णवका समुद्धार बताया है। साथ ही उसे दुःखको दलन करने और सर्व सुखको देने वाला तथा स्वर्ग-अपवर्गका दाता प्रकट किया है। रचना इतनी सरल और सरस है कि पढ़ने के साथ ही उसका अर्थ-बोध हो जाता है। इसके रचियताके नाम भादिका उक रचना परसे कुछ पता नहीं चलता।
-हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री