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________________ पौराणिक कथा -तुकारी: (श्री पं० जयन्तीप्रसादजी शास्त्री) भहाका जीवन बड़े लालन-पालनमें व्यतीत हुआ था। बातें सहन कर सकता है, पर आपका 'तू' शब्द नहीं सुन वह पाठ भाइयोंके बीचमें अकेली ही थी, इसलिए सबका सकता । मैं कोई इज्जत बेच कर थोड़े ही काम करता हूँ। प्यार पाकर फूली नहीं समाती थी और सुन्दर भी इतनी पागेसे पाप ध्यान रखियेगा, आखिर मैं भी मनुष्य हूँ। थी कि उस चन्दनपुरमें उसको समता करने वाली दूसरी उसकी इन बातोंको श्री पण्डितजी भी सहन न कर कोई लड़की नहीं थी। बड़ी गुणवती और सुशीला थी सके, बोले-अगर ऐसा ही है तो नौकरी करने क्यों सबके साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करती थी, आब-श्रादरके माये । बच्चू ! यह नौकरी है, इसमें सब कुछ सहन करना साथ बोलना, चालना, उसका स्वभाव बन गया था। उसे पड़ता है। अगर तू काम नहीं कर सकता, तो छोड़ कर अगर जीवनमें किसीसे घृणा थी, तो 'तू' शब्द से। अगर चला जा। कोई किसीसे किसी भी बातमें 'त' कहता. तो उसे बड़ा ही रामू पुनः कहे गये 'तू' को सुनकर सोचने लगा, क्या बुरा लगता और क्रोध उत्पन्न कर देता था। इस बात पर ऐसा व्यवहार सभी पैसे वालोंके यहां होता है क्या सभी जब कभी अपने पिताजी पर भी नाराज हो जाया करती थी। इतनी बुरी प्रवृत्तिके होते हैं क्या पैसेके घमण्डमें पाकर उसके पिता पं० शिवशर्मा नामके ब्राह्मण, धनवान , बोलते हैं इनके यहां मानवका प्रादर नहीं होता? क्या गुणवान् और राजा द्वारा सम्मानित थे। नगर में उनका ये सभी नौकरोंके साथ ऐसा ही वर्ताव करते हैं। इनके बड़ा आदर था। मब लोग पूज्य और श्रद्धा-रप्टिसे देखते दिल नहीं होता ? कभी नौकरको शाबासी भी नहीं देते थे। अगर कोई उनसे दुखी था तो उनका वह रामू नौकर, होंगे, चाहे वह नौकर सेठ जीके लिए प्राण भी ट्रेनेको तैयार जिसे पंडितजी कभी भी सहानुभूतिकी दृष्टिसे नहीं देखते रहे, पर सेठजीकी कोई सहानुभूति नहीं। पर, नहीं-नहीं थे। और हर बातमें सदा तीखापन लेकर यह नहीं सभी एकसे नहीं होते, बहुतसे बड़े भले होते हैं, नौकरों के किया, वह नहीं किया, हरामकी नौकरी पाता है, यह काम साथ बड़ा ही अच्छा वर्ताव करते हैं, सदा अच्छी तरह किया तो इसमें यह गलती है, कुछ करना ही नहीं आता, बोलते हैं, उसके दुःख-सुखकी पूछते हैं, बीमार होने पर इत्यादि कहते रहते थे। वह बेचारा मजबूर रामू जी बड़ी चिन्ताके साथ उसका इलाज कराते हैं। पर, ये पं० जी, लगाकर काम करता था केवल दस रुपया और भोजन पर। बुखार थाने पर भी नहीं छोड़ते हैं। कहते हैं-बहाना कर प्रातः पांच बजे उठना और काम करते-करते रातको १ बजे रहा होगा, इत्यादि विचारता हुआ आंखोंमें दुःखका सागर सोना प्रतिदिनका काम था। उमड़ाता हुआ पं० जोको नमस्कार कर चल दिया। एक दिन पंडितजी उस बेचारे रामू पर गुस्सा होते हुए जाते समय भट्टाने उसे रोका, और समझाया। साय बुरी तरह चिल्लाये और बोले-तू अन्धा हो गया था जो ही अपने पिताजीसे बोली-पिताजी। आप अगर की यह दिखाई नहीं दिया। हरामी कहीं का, पता ही नहीं जगह तुम बोल दिया करें, तो कोई भारी समय न खगे, लगता उबला-उबला-सा क्यों रहता है एक काम जो आध हर एक आदमी अपने घरका और मनका राजा होता है। घंटेमें बहुत आसानीसे हो जाय, उसमें तीन घंटे लगाता है। एक वार श्रादमीको रोटी कपड़ा न दो, पर बोलना, चालना सुझसे काम नहीं होता तो नौकरी छोड़कर चला जा। ठीक रक्बो, प्रेम पूर्वक मधुरतासे बोलो. वह आदमी रामू उनकी सारी बातोंको सुनता गया, पर 'तू' आपका हो जायगा । आप मुझसे भी कितनी ही बार '' के शब्दको सुन कर उसके हृदयमें भारी आघात पहुँचा, सोचने साथ बोल चुके हैं, हालांकि, मैं आपकी पुत्री हूँ, फिर भी लगा, यहां मेरा कुछ भी आदर नहीं है और जहां इज्जत मुझे बहुत बुरा लगता है। मेरी माता जी भी दुःखी हो ही नहीं, वहां काम नहीं करना, चाहे भूखों मर जाऊँ। ऐसा जाती हैं और सब भाई भी। सोचकर पण्डितजीसे बोला-पण्डितजी मैं आपकी सारी सुन कर पं० जो कुछ शान्त होकर बोले-बेटी 'तू'
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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