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________________ -१०२] अनेकान्त [ वर्ष १४ भोजके प्रारम्भिक राज्यकालमें प्रभाचन्द्रने अपना सहयोग प्राप्त था, पर 'न्यायकुमुदचन्द्र' के लिखते प्रमेयकमलमार्तण्ड बनाया होता, तो वादिराज समय उन्हें अन्य विद्वानोंके सहयोग मिलनेका कोई उसका उल्लेख अवश्य ही करते। पर नहीं किया आभास नहीं मिलता और गुरु भी सम्भवतः उस इससे यह ज्ञात होता है कि उस समय तक प्रमेय- समय जीवित नहीं थे क्योंकि न्यायकुमुदचन्द्र सं. कमलमार्तण्डकी रचना नहीं हुई थी। हाँ सुदर्शन १११२ के बादकी रचना है। कारण कि जयसिंह चरितके कर्ता मुनि नयन-दीने, जो माणक्यनन्दीके राजाभोजके बाद (वि० सं० १११० के बाद) किसी प्रथम विद्याशिष्य थे और प्रभाचन्द्रके समकालीन समय राज्यका अधिकारी हुआ है। जयसिंहने सवत् गुरुभाई भी थे, अपना सुदर्शनचरित वि० सं० ११०० १११० से १११६ तक राज्य किया है । यह तो सुनिमें बना कर समाप्त किया था और उसके बाद श्चित ही है इनके राज्यका सं० १५१२ का एक दान'सकल विधिविधान' नामका काव्य-ग्रन्थ भी बनाया पत्र भी मिला है। उसके बाद वह कहाँ और कब था जिसमें पूर्ववर्ती और समकालीन अनेक विद्वानों तक जीवित रह कर राज्य करते रहे, यह अभी का उल्लेख करते हुए प्रभाचन्द्रका नामोल्लेख किया अनिश्चित है। अतः आचार्य प्रभाचन्द्रने भी अपनी है पर उसमें उनकी रचनाओंका कोई उल्लेख नहीं रचनाएं जिन्हें राजाभोज और जयसिंहके राज्यमें है। इससे स्पष्ट जाना जाता है कि प्रमेयकमलमा- रचा हा लिया है, सं० ११०० से लेकर सं०११६ तण्डकी रचना सं० ११०० या उसके एक-दो वर्ष बाद तकके मध्यवर्ती समयमें रची होगी। शेष ग्रन्थ हुई है । प्रभाचन्द्रने जब प्रमेयकमलमार्तण्ड बनाया; जिनमें कोई उल्लेख नहीं मिलता, व कब बनाय, उस समय तक उनके न्यायविद्याग भी जीवित थे इस सम्बन्ध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं है। इस सब विवेचन परसे स्पष्ट है कि प्रभाचन्द्र x जैसा प्रमेयकमलमार्तण्डके ३.११ सत्रकी व्याख्यासे विक्रमकी ११वीं शताब्दीके उत्तरार्ध और १२वीं स्पष्ट है-'नच बालावस्थायां निश्चयानिश्चयाभ्यां प्रतिपक्ष शताब्दीके पूर्वाधके विद्वान् हैं। साध्यसाधन-स्वरूपस्य पुनवृद्धावस्थायाँ तद्विस्मृतौ तत्स्वरू . (क्रमशः) पोपलम्मेऽप्यविनाभावप्रतिपत्त रभावात्तयोस्तदहेतुत्वम् , स्मर- सनिमित्तत्वप्रसिद्धिः। मूलकारणत्वेन तूपलम्भादरचोपदेशः, गादेरपि तद्धतुत्वात् । भूयो निश्चयानिश्चयौ हि स्मरणादेस्तु प्रकृतत्वादेव तत्कारणत्वप्रसिद्ध ग्नुपदेश इत्यभि स्मर्यमाण-प्रत्यभिज्ञापमानौ तस्कारणमिति स्मरणादरपि प्रायां गरूणाम ॥"-अनेकान्त वर्ष ८, किरण १०.११ समाज से निवेदन अनेकान्त जैन समाज का एक साहित्यिक और ऐतिहासिक सचित्र मासिक पत्र है । उसमें भनेक खोजपूर्ण पठनीय लेख निकलते रहते हैं। पाठकोंको चाहिये कि वे ऐसे उपयोगी मासिक पत्रके ग्राहक बनाकर तथा संरक्षक या सहायक बनकर उसको समर्थ बनाएं। हमें दो सौ इक्यावन तथा एक सौ एक रुपया देकर संरक्षक ब सहायक श्रेणी में नाम लिखानेवाले केवल दो सौ सज्जनों की आवश्यकता है। आशा है समाज के महानुभाव एक सौ एक रुपया दान कर सहायक श्रेणीमें अपना नाम अवश्य लिखाकर साहित्य-सेवामें हमारा हाथ बटाएंगे। मनेजर 'अनेकान्त
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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