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[वर्ष १४
अनेकान्त
बड़ा ही हानिकारक सिन्छ हुआ । मेरे स्वभाव और मेरी इस चिड़ को देखकर कोई विवाद की हिम्मत ही नहीं करता था । धीर जो तैयार भी होता था तो उसके साथ यही समस्या रखदी जाती थी, कि 'तू' शब्दका प्रयोग कभी मत करना ।
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कहना क्या बुरा है लोग भगवान् से भी 'तू' बोलते हैं, चाकर, स्थान-स्थान पर वेद, पुराणों, आदि देख जाता है। पति स्त्रीसे पिता पुत्र से बड़े छोटोंसे प्यार में कर 'तू' बोलते हैं।
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पर पिताजी ! आपने रामूसे जो 'तू' कहा, यह कौनसे प्यारका नमूना था, कीनमी महि थी। ईश्वर तो सुनता नहीं है, वह सब कुछ देखता रहता है, अगर वह सुनता होता, तो मैं आपसे सच कहती है एक बार फिर उसे पृथ्वी पर 'तू' शब्दको मना करनेके लिए आना पड़ता। पर जब वह कुछ सुनता ही नहीं है, तो पीठ पीछे जिसको चाहो उसको वैना कहो, 'तू' ही क्या, गाली भी दो । परन्तु पिताजी! यह शिक्षित लोगोंके शब्दकोपसे निकल बुध है, भले में अब इसका उच्चारय नहीं होता। पत्नी और पुत्र श्रादि भी इस शब्दको सुनकर चौंक पड़ते हैं, दुःखी होते हैं, और दूसरे नाते रिश्तेदारों तथा अन्य शिक्षित वर्गके सामने कहने पर तो दुःखका कुछ ठिकाना नहीं रहता ।
इस 'तू' में प्यार नहीं, श्रनादर छिपा है, घृणा छिपी है है और प्रगट हो जाती है असभ्यता भगड़े को बढ़ाता है शान्त वातावरयामें उनकनें और मनमुटाव पैदा कर देता है। अब तो ग्रामीण श्रदमा भी अपने वर-घरसे इसे निकाल रहे हैं। इस 'तू' शब्द उच्चारण मात्र से बहुतोंक मुखसे क्या तकनिक कर मुँह पर चले जाने हैं। और फिर आप ही सोचिये, यह कितना बुरा शब्द है, इससे कितनी कठोरता भरी हुई है कितना अक्खड़पन भरा हुआ है और feart are भावना और अमानवता । इस 'तू' शब्दके पीछे ही मुझमें और मुहल्ला पड़ोस वालोंमें एक दिन कितना झगडा हो गया था। मैंने उनकी सात पीढ़ीकी बात farari कर रखदी यो तब आपने ही श्राकर शान्त किया था।
पं० जीनै बड़े शान्त भावसे विचारा और कहा-बेटी ! ठीक है श्रीगेसे मैं कभी इस 'तू' शब्दका स्तेमाल नहीं करूँगा । अब तक मैं यह नहीं सममता था, कि मेरी पुत्री को भी इस '' शब्द paat far है । अच्छा श्राज ही में राजासे पूछकर मनादी कराये देता हूँ कि कोई तू नहीं बोला करेगा और खास तौरसे मेरी पुत्री के साथ । और उसने राजाज्ञा लेकर उस प्रकार की घोषणा भी करा दी। इस घोषणा को सुनकर मुहल्ला पदम वालोंने १० जी की पुत्रीका नाम 'तुकारी' रख दिया, यह घोषणाका कराना मेरे लिये
थाखिर में प्रसिद्ध पंडित की पुत्री थी रूपवती थी मेरी सुन्दरताकी प्रसिद्धि थी और मेरे पिताजी भी मुझे अपने अधिक पैसे वाले यहां विवाह करना चाहते थे। इन मारी बातों को लेकर एक सोमशर्मा नामक युवक रजामन्द हो गये, और उन्होंने यह प्रतिज्ञा की कि मैं कभी भी जीवन में 'तू' नहीं कहूँगा ।
बस में यह चाहती थी, मेरा विवाह हो गया, बड़े आनन्दके साथ रहने लगी मेरे साथ उन्होंने बड़ा अच्छा व्यवहार किया । मेरे ही साथ क्या उनका व्यवहार सभीके साथ धच्छा होता था । मेरे पतिदेव मुझसे बड़ा प्यार करते थे। हमारा जीवन 'सुख और शान्तिके साथ बीतने लगा ।
एक दिन पतिदेव 'नाटक' देखने गये। उनका इन्तजार करते-करते रातका १॥ बज गया । मुझे रह-रहकर बड़ा गुस्सा थारहा था, और नाना प्रकारकी शंकाएं मुझ पर चढ़ी शा रहीं थीं। इसी बीचमें विचार उथल लेते रहे और मुझे नींद बागई, में स्वप्न में देखने लगी कि मेरे पतिदेव नाटक देखने नहीं गये। यह तो उनका बहाना था । मैंने देखा वे एक बाजारू स्त्रीक यहां ऊपर कमरे में बैठे गाना सुन रहे हैं, उनके साथ उनके और भी यार दोस्त मस्त हो रहे हैं। वेश्या उनको अपने हाथ से पान खिला रही है, पानी पिनासी नजरें डालकर रिया रही है, और ये लोग, दस-दसके नोट उसके गानेकी एक-एक बात पर दे रहे हैं, कभी किसी प्रकार कभी किसी प्रकार | उन्हें देखकर उस समय मुझे ऐसा मालूम पड़ रहा था, मानो अगर दुनियां में कहीं प्यार है, तो यहां पर है। और कोई गानेको. समझने वाले हैं, तो बम यही लोग हैं । और अगर कोई गाने वाली है तो एक यही इतनेमें नौकरने चाकर एकएक बोतल शराब की उनके हाथोंमें देदी। पीने लगे, पीकर झूमने लगे, कहने लगे प्यारे शब्द | इतने प्यारे, कि शायद मजनृनेभी लैलाके लिए न कहे होंगे, और फरियाद भी शोरीके लिए कभी सोचे भी नहीं होंगे।
उन बेश्याके आगे दस-इसके नोटों का ढेर सा लग गया था, ऐसा प्रतीत होता था की एक हजार के नोट होंगे। उनके एक साथीने तो शराब के नशे में मस्त होकर अपने हाथकी