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________________ किरण ३-४ तुकारी [१०५ घड़ी तक उसके हाथमें बांध दी। आवाज इतनी जोशसे भरी हुई थी, कि में रुक गई, न तो मैं यह सब देख रही थी और उस स्वप्नावस्थामें ही भाग सकी, और न चिल्ला ही पाई। प्रास्थिर भागकर बड़ी दुखी होरही थी। मैं अपने पतिदेवको ऐसा नहीं सम- जाती भी कहाँ रुक गई, देखा, सिपाहियोंकी वर्दी पहि झती थी। यहां मुझसे कहते थे कि मेरी प्रतिज्ञा है, मैं दस आदमी अपने-अपने हाथों में बन्द के लिये हुये मेरे सामने तुम्हारे सिवाय सबको माता और बहिन समझता हूँ और आगये, चारों श्रोरसे मुझे घेर लिया। उनमेंसे एक बोलाआज यह हाल ! क्या सभी ऐसे होते हैं. देखो,उनके साथी इसके पास जो जेवर हैं, उन्हें राजीसे ले लो और इसे जाने भी ऐसे ही हैं, जिनके घरों में अप्सरा नुल्य नारियां हैं और दो। यह सुनकर और परिस्थिति को विकट देखकर झट ही उनके प्रति पतियों का यह अत्याचार | मृठे प्यार पर सब मैंने अपना जेवर उतार कर उनके मुपुर्द कर दिया। कुछ बलिदान कर रहे हैं। हे भगवान ! तू इन्हें कब सुबुद्धि वे मुझे अपने साथ पकड़ ले गये और आगे कुछ देगा। दूर जाकर एक भीलके सुपुर्द कर दिया, जो जीवों ____ मानव मात्र चाहता है, मुझे'मीता मिले, परन्तु स्वयं के खूनसे रंगकर कम्बल बनाया करता था। पर मैं क्या यह भूल जाता है कि सीता पाने से पहले तुम्हें राम बनना करती, अबला जो थी और फिर सोचने लगी, कि सीताजी पड़ेगा । रामको ही सीता मिल सकती है। इस प्रकारक को जब रावण हरणकर लेगया था. तब उन्होंने ही क्या विचारोंमें दृश्योंमें उलझी हुई मेरे हृदय धडकन जो अधिक किया था । जब द्रोपदीका चीर खींचा गया उस समय सिवाय बढ़ चुकी थी बन्द होकर ऐसा मालूम पडने लगा, मानो भगवानके नामके और रटा ही क्या था । बस एक. वार हृदय बैठा जारहा है । पर रह-रहकर पतिदन पर क्रोध देखा था भीम की गदा की ओर और अर्जुन के बाथ बारहा था। की घोर फिरभी सबलों की पत्नी अबला ही तो थी। क्या इतनेमें दरवाजा खटखटाने की श्रावाज आने लगी। करती, मैं भी भगवानका स्मरण करने लगी। अब मुझे मेरी स्वप्निल दुनियां छिन्न-भिन्न हो गई। पर वे बातें अपने गुस्से पर, गुस्मा श्रारहा था। कुछ दिनोंके बार हृदय-पटल पर ज्यों की त्यों अंकित होगई। हृदयमें गुस्सा मैंने उसकी एप्टिमें कुछ और ही पाया। पहले तो मुके भरा हुथा था मैं सजग होगई : मुझं रह-रहकर बड़ा भारी पुत्री-पुत्री कहता था। बड़े प्यारमे बोलता था। मैं भी इस गुस्मा बारहा था और सोते समय मैंने निश्चय कर लिया प्रकार एक जगलीके वर्तावको देखकर कभी-कभी सोचती था कि श्राज किवाड़ नहीं खोलूगी। आखिर उनको पुका- थी-अगर इन लोगोंको शिक्षित बनाया जाय तो कितने रने-पुकारने, किवाड़ खटकान-ग्व-कान काफी गमय होगया। भले हो सकते हैं और अपने नीच कर्मोको छोड़ सकते हैं। वे गुम्मामे पाकर एकदम अपनी प्रतिज्ञाको भूल गये, और पर यकायक उसका परिवर्तन देवकर-अपनी ओर कामक मुझे 'तू' कहकर पुकार लिया। दृष्टिसे आता देवकर, मुझमें कुछ माहम बधा और मैंने बड़ी बम फिर क्या था, उनका तू, कहना था कि मैं सिरस कड़कती श्राव ज़में कहा-खबरदार ! जो श्रागे बदे, तो मैं पांव तक जल उठी, सारा शरीर गुस्पा मारे कैंपकपाने लगा, अपने प्राण दे दृगी । वह रुक गया । उस दिन मुझे मैंने उनकी शक्ल तक देखना पसन्द नहीं किया। गुम्मामें मलूम हुश्रा, कि नारीकी वाणीमें भी किनाना पल होता है। अन्धी होकर घरसे निकलकर भाग गई। मुझे उस समय उस भीलने बहुत कुछ अपने कृत्य और बुरी भावना कुछ न सूझा कि में कहां जारही है। मैं शहरसे बाहर पर पछताते हए मुझे एक सेट हाथों बेच दिया पांच हजार होकर जंगल की ओर चल पडी क्रोधमें भागी-भागी जा रुपएमें और वे संठजी भी यह कहकर मुझे लाये, कि मेरे रही थी। जिस रास्तमें क्या, जरासं अँधेरमें भी मुझे डर भी कोई सन्तान नहीं है। यह मेरी पुत्रीक मानिन्द सेठानी लगता था, सो न जाने अाज मेरा डर नहीं चला गया । के पास बनी रहा करेगी। पर अन्तरंग क्या था, कुछ क्रोधन मुझे पागल बना दिया था। मेरे सामने स्वप्नमें समझमें नहीं आ रहा था। श्राई हुई बातोंने विश्वास जमा दिया था। चलते समय भीलने कहा था मेरी ओर करुणाकी रास्तेमें मुझे कुछ पाहट सुनाई दी। किसीने कडकती दृष्टिसे देखते हुए की सेठजी इसे 'दुःख मत देना।' मेरे आवाजसे कहा-कौन जा रहा है, खड़े हो जायो। वह दिलमें एक बार फिर उसके इन शब्दोंसे उस छ
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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