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________________ [ वर्ष १४ सेठजीने मेरे पैरोंमें अपनी पगड़ी रख दी और गिढ़गिड़ाते हुए बोले- 'मुझे क्षमा करो ।' परन्तु मनमें मायाचार था । ऐसे व्यक्ति अवसरवादी होते हैं। मौका टल जाने पर कुछ दिनोंके बाद उन्होंने एक तीसरे अदमीके हाथ मुझे धोखा देकर बेच दिया । उसने मेरे शरीरसे जोंके लगा लगाकर खून निकाला। मैं बहुत कमजोर हो गई और अपने कर्मों पर पश्चाताप करने लगी और कोसने लगी, अपने भाग्यको । १०६ ] अनेकान्त दयाभाव आया और मैंने उसके चेहरे पर पछतानेके भावको चाहते हैं। साफ़-साफ़ देखा । मैं सेठजीके घर आई और बड़े आरामसे रहने लगी। सेठानीका भी बर्ताव मेरे प्रति बड़ा अच्छा था। मैं भी उनको मां मानती थी। परन्तु उनके चेहरे पर जब कभी मेरे अंग-प्रत्यंगों को ही क्या सारे शरीरको देख लेनेके बाद कुछ आशंका भाव झलक जाते थे और यही दशा उनकी तब होती थी जब सेठजी मुझसे कोई बात हँसकर कर जाते थे। मुझे भी उनके इस प्रकारके भाव को देखकर दुःख होता और सोचने लगती, कि नारीका हृदय बड़ा शंकित होता है और हुआ भी ऐसा ही । सेठजीके विचारोंमें, क्रियाओंोंमें मुझे नई दुनिया दिखने लगी। जहां लोग बहिनजी-बहिनजी कहते-कहते और बहिनजी भाई साहब, भाई साहब कहतेकहते थक जाते हैं और उनका बहिन भाईका सम्बन्ध दूसरे निन्दनीय रूपों में परिणत हो जाता है ऐसा ही सेठजीका मेरे साथ हुआ । मैं कभी-कभी सोचती, शायद मानव समाज भोली-भाली नारियोंको नाना प्रकारके प्रलोभन तथा भय दे-देकर उनके सतीत्वको भ्रष्ट करनेमें नहीं चिकता । नारीके सामने लोकलाज तथा मजबूरी इतनी -अधिक श्रा जाती है कि उस बेचारीको श्रात्मसमर्पण करना पड़ता है । आखिर वह करे क्या, जहां जाय, कुछ दिन तो बड़ा अच्छा वर्ताव, अन्त फिर वही मंजिल ! लोग इस ओर ध्यान ही नहीं देते। पर नारीको चाहिये कि प्राय भले ही चले जांय, पर अपने धर्मसे कभी विचलित न हो । यह अन्तमें सेठजीकी दाल न गल सकी, मैंने बुरी तरह उन्हें आड़े हाथों लिया। उनका शरीर कँप - कपाने लगा । फिर मैंने और साहस बटोरकर कहना प्रारम्भ किया -- श्रय नीच ! मैं अभी तेरे ढोंगका भण्डाफोड़ करती हूँ, अभी चिल्लाती हूँ तेरे मकानसे । धिक्कार है तुझ जैसे पापियों को, जो पुत्री-पुत्री कहते हुए उसके साथ दुराचार करना इसी भांति मुझ पर अनेकों दुःख पड़े । स्थान-स्थान पर मेरे सामने भ्रष्ट होनेके प्रश्न आये, पर भगवानने मेरी लाज रख ली। मेरे शरीरको कोई हाथ नहीं लगा सका । इस प्रकार केवल चार माह ही हो पाये थे, उनमें ही इतने स्थानों पर समाज की दशाका पूरा-पूरा परिचय मिला । अन्तमें एक दिन मेरे पुण्यका उदय हुआ। मुझे उस रास्ते से जाते हुए अपने भाईके दर्शन हुए, मेरी खुशीका ठिकाना न रहा। मैं अपने भाईसे मिल कर इतनी रोई और मेरा भाई भी, मानो हमने फिरसे जन्म पाया हो, या युगयुगसे बिछड़े हुए मिले हों । मेरे भाईने उसी समय राजाके यहां खबर करके मुझे उस दुष्टके यहांसे छुड़ा लिया और अपने साथ ले गया । मुझे मेरे मेरे पतिदेवके सामने जानेका साहस भी नहीं होता था और शायद ऐसा ही उनका हाल था। वे भी मेरे सामने थाने में संकोच करते थे । आखिर ये आये, दोनोंके हृदयों में एक दूसरेको देखकर श्रानन्द था, पर चिरसंचित वियोगके धांसू निकल पड़े । आज उनको अपने तू कहनेका दुःख था और मुझे अपने क्रोधका । इन सारी बातोंके बाद भी, जब मैं अपने भाईके साथ घर गई, तो नगरमें शोर हो गया कि तुकारी आ गई। लोग मुझे तुकारी कहना अब भी नहीं भूले थे । मुख्तार श्रीकी ८०वी वर्षगांठ वीरसेवामंदिर के संस्थापक सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान् श्राचार्य जुगलकिशोरजी मुख्तार, अपने जीवन के ७६ वर्षको पूरा कर मगशिर शुक्ला एकादशी दिन गुरुवार ता० १३ दिसम्बर को ८० वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। इस अवसर पर समाज की रसे उनके दीर्घायु होने की शुभकामना की जानी चाहिए ।
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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