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________________ जैन दर्शन और विश्वशान्ति [श्री० प्रो० महेन्द्र कुमारजी न्यायाचार्य, एम० ए० ] विश्वशान्तिके लिए जिन विचारसहिगुता, समझौते की चादर पर बैठकर सोचना चाहिए कि 'जगतके उपलब्ध की भावना, वर्ण, जाति, रंग और देश आदिके भेदके बिना माधनोंका कैसे विनियोग हो ? जिससे प्रत्येक प्रामाका सबके समानाधिकार की स्वीकृति, व्यक्तिस्वातन्त्र्य और दूसरे अधिकार सुरक्षित रहे और ऐसी समाजका निर्माण सम्भव के अान्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना आदि मूलभूत हो सके जिसमें सबको समान अवसर और सबकी समान आधारों की अपेक्षा है उन्हें दार्शनिक भूमिका पर प्रस्तुत रूपसे प्रारम्भिक आवश्यकताओंकी पूर्ति हो सके । यह करने का कार्य जैनदर्शनने बहुत पहिलंसे किया है। उसने व्यवस्था ईश्वरनिर्मित होकर या जन्मजात वर्गसंरक्षणके अपनी अनेकान्त दृष्टिसे विचारने की दिशामें उदारता, व्याप- अाधारसे कभी नहीं जम सकती, किन्तु उन सभी समाजक कता और सहिष्णुता का ऐसा पल्लवन किया है जिससे घटक अंगोंकी जाति, वर्ण, रंग और देश श्रादिक भेदके व्यक्ति दूसरेक दृष्टिकोण को भी वास्तविक और तथ्यपूर्ण विना निरुपाधि ममान स्थितिक आधारस ही बन सकती है। मान सकता है। इसका स्वाभाविक फल है कि-समझौते समाज व्यवस्था ऊपरसे लदनी नहीं चाहिए, किन्तु उसका की भावना उत्पन्न होती है। जब तक हम अपने ही विचार विकास महयोगपद्धनिस सामाजिक भावनाकी भूमि पर होना और दृष्टिकोण को वास्तविक और तथ्य मानते हैं तब तक चाहिए, तभी सर्वोदयी समाज-रचना हो सकती है। जैनदूसरेके प्रति आदर और प्रामाणिकता का भाव ही नहीं हो दर्शनने व्यक्तिस्वातन्त्र्यको मूलरूपमें मानकर सहयोगमूलक पाता । अतः अनेकान्त दृष्टि दूसरोंके दृष्टिकोणके प्रति सहि- समाज-रचनाका दार्शनिक आधार प्रस्तुत किया है। इसमें पणुता, वास्तविकता और समादर का भाव उत्पन्न करती है। जब प्रत्येक व्यक्रि परिग्रहके संग्रहको अनधिकार वृत्ति मानकर जैनदर्शन अनन्त यात्मवादी है। वह प्रत्येक प्रात्मा को ही अनिवार्य या अन्यावश्यक साधनोंक संग्रहमें प्रवृनि करेगा मृलमें समान स्वभाव और ममान धर्म वाला मानता है। सो भी समाजके घटक अन्य व्याश्याको समानाधिकारी उनमें जन्मना किसी जाति-भेद या अधिकार भेदको नहीं । समझ कर उनकी भी मुविधाका विचार कर ही, तभी मानता । वह अनन्त जड़पदार्थोका भी स्वतन्त्र अस्तित्व सर्वोदयी समाजका म्वस्थ निमाण सम्भव हो सकेगा। मानता है । इस दर्शनने बाम्नव बहुत्वको मान कर व्यक्ति- निहित स्वार्थवाले व्यक्रियोंने जानि, वश और रंग स्वातन्थ्यकी माधार स्वीकृति दी है। वह एक व्यक परिण- श्रादिके नाम पर जो अधिकारोंका संरक्षण ले रखा है तथा मन पर दूसरे व्यका अधिकार ही नहीं मानता। अतः जिन व्यवस्थाओंने वविशेषको संरक्षण दिय है, वे मूलतः किसी भी प्राणांक द्वारा दसरे प्राणीका शोपण, निर्दलन या अनधिकार चप्टाएँ हैं। उन्हें मानवहित श्रीर नवसमाज स्वायत्तीकरण ही अन्याय है। किमी चतनका अन्य जड़ पढ़ा. रचनाके लिए स्वयं समाप्त होना ही चाहिए और ममान थोंको अपने आधीन करनेकी चेष्टा करना भी अनधिकार अवसरवाली परम्पराका सर्वाभ्युदयकी दृष्टिस विकास होना चेष्टा है। इसी तरह किसी देश या राष्ट्रका देसरे देश या चाहिए। राष्ट्रको अपने प्राधीन करना उसे अपना उपनिवेश बनाना इस तरह पानेकान्त दृष्टिसे विचार महिष्णुता और ही मूलतः अनधिकार चेष्टा है, अतएव हिया और अन्याय है। पर-सम्मानकी वृत्ति जग जाने पर मन दुसरंक स्वार्थको अपना वास्तविक स्थिति ऐसी होने पर भी जब अात्माका स्वार्थ माननेकी और प्रवृन होकर समझातकी और सदा शरीर-संधारण और समाज-निर्माण जड पदार्थोंक बिना झुकने लगता है। सम्भव नहीं है, तब यह सोचना आवश्यक हो जाता है कि जब उसके स्वाधिकारके साथ ही माथ स्वकर्तव्यका भी अाखिर शरीर-यात्रा समाज निर्माण र राष्ट्र-संरना अादि उदित होता है, तब वह दृमरके श्रान्तरिक मामलोंमें जबरकैसे किये जायें ! जब अनिवार्य स्थितिमें जड़पदार्थोका संग्रह दस्ती टाँग नहीं अड़ाना। इस तरह विश्वशान्तिके लिये और उनका यथोचित विनियोग आवश्यक होगया तब यह उन अपेक्षित विचार-सहिप्मुता, समानाधिकारकी स्वीकृति और सभी पारमाओंको ही समान भूमिका और समान अधिकार आन्तरिक मामलोंमें अहस्तक्षेप आदि सभी प्राधार एक
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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