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________________ १०८] अनेकान्त व्यकि स्वातन्त्र्यके मान लेनेसे ही प्रस्तुत हो जाते हैं और दृष्टि और जीवनमें भौतिक-साधनोंकी अपेक्षा मानवके जब तक इन सर्व समतामूलक अहिंसक आधारों पर समाज सन्मानके प्रति निष्ठा होने से । भारत राष्ट्रने तीर्थकर महारचनाका प्रयत्न न होगा तब तक विश्वशान्ति स्थापित नहीं वीर और बोधिसत्व गौतमबुद्ध आदि सन्तोंकी अहिंसाको हो सकती । श्राज मानवका दृष्टिकोण इतना विस्तत. उदार अपने संविधान और परराष्ट्रनीतिका आधार बनाकर विश्वको और व्यापक हो गया है जो वह विश्वशान्तिकी बात सोचने एक बार फिर भारतकी आध्यात्मिकताकी झांकी दिखा दी लगा है। जिस दिन व्यक्रि-स्वातन्त्र्य और समानाधिकार है। आज उन तीर्थकरोंकी साधना और तपस्या सफल हुई है की बिना किसी विशेष संरक्षणके सर्वमान्य प्रतिष्ठा होगी कि समस्त विश्व सह-अस्तित्व और समझौतेको वृत्तिकी वही दिन मानवताके मंगल प्रभातका पुण्य क्षण होगा। जैन- ओर झुककर अहिंसक भावनासे मानवताकी रक्षाके लिए दर्शनने इन आधारोंको सैद्धान्तिक रूप देकर मानवकल्याण मन्नद्ध हो गया है। अरि जविनका मंगलमय निवाह-पद्धतिक विकासमं अपना व्यक्तिकी मुक्ति, सर्वोदयी समाजका निर्माण और विश्वपूरा भाग अर्पित किया है। और कभी भी स्थायी विश्व- की शान्तिके लिये जैन दर्शनके पुरस्कर्ताओंने यही निधियां शान्ति यदि सम्भव होगी तो इन्हीं मूल आधारों पर ही वह भारतीय संस्कृतिके प्राध्यात्मिक कोशागारमें श्रात्मोत्सर्ग प्रतिष्ठित हो सकती है। और निर्ग्रन्थताकी तिल-तिल-साधना करके संजोई हैं । श्राज भारत राष्ट्र के प्राण पं. जवाहरलाल नेहरूने विश्व- वह धन्य हो गया कि उसकी उस अहिंसा, अनेकान्तदृष्टि शान्तिके लिये जिन पंचशील या पंचशिलाभोंका उदघोष और अपरिग्रह भावनाकी ज्योति से विश्वका हिंसान्धकार किया है और बाडुङ्ग सम्मेलनमें जिन्हें सर्वमतिसे स्वीकृति समाप्त होता जा रहा है और सब सबके उदयमें अपना मिली उन पंचशीलोंकी बुनियाद अनेकान्तदृष्टि-समझौतेको उदय मानने लगे हैं। वृत्ति, मह-अस्तित्वकी भावना, समन्वयके प्रति निष्ठा और राष्ट्रपिता पूज्य बापूकी आत्मा इस अंशमें सन्तोषकी वर्ण, जाति रंग श्रादिके भेदोंसे ऊपर उठकर मानव-मात्रके सांस ले रही होगी कि उनने अहिंसा संजीवनीका व्यक्रि सम-अभ्युदयकी कामना पर ही तो रखी गई है । और इन और समाजसे आगे राजनैतिक क्षेत्रमें उपयोग करनेका जो सबके पीछे है मानवका सन्मान और अहिंसामूलक श्रान्मौ- प्रशस्त मार्ग मुझाया था और जिसकी अटूट श्रद्धामें उनने पम्यकी हार्दिक श्रद्धा । श्राज नवोदित भारतकी इस मर्यो- अपने प्राणोंका उत्सर्ग किया, अाज भारतने दृढतासे उसपर दयी परराष्ट्रनीतिने विश्वको हिमा, संघर्ष और युद्धके अपनी निप्टा ही व्यक्त नहीं की, किन्तु उसका प्रयोग नवदावानलसे मोडकर सहअस्तित्व, भाईचारा और समझौतेकी एशियाके जागरण और विश्वशान्तिक क्षेत्रमें भी किया है। सद्भावना रूप अहिंसाकी शीतल छायामें लाकर खडा कर और भारतकी 'भा' इसीमें है कि वह अकला भी उम दिया है। वह सोचने लगा है कि प्रत्येक राष्ट्रको अपनी आध्यात्मिक दीपको मंजोता चले, उसे स्नेह दान देता हुआ जगह जीवित रहने का अधिकार है, उसका स्वास्तित्व है, उसी में जलता चले और प्रकाशकी किरणें बखेरता रहे। परके शोषणका या उसे गुलाम बनानेका कोई अधिकार नहीं जीवनका सामंजस्य, नवसमाज-निर्माण और विश्वशान्तिके है, परमें उसका अस्तित्र नहीं है। यह परके मामलोंमें यही मूलमन्त्र हैं। इनका नाम लिए बिना कोई विश्व अहस्तक्षेप और स्वास्तित्वको म्वीकृति ही विश्वशान्तिका शान्तिकी बात भी नहीं कर सकता । मूलमन्त्र है। यह सिद्ध हो सकती है-अहिंसा, अनेकान्त (जैन दर्शनसे) ग्राहकों से निवेदन । अनेकान्त के ग्राहकों से निवेदन है कि सेवा में अनेकान्त की कई किरणें भेजी गई हैं। श्राशा है वे आपको पसन्द आई होंगी । कृपया अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया मनीआर्डरसे भेज दीजिये । अन्यथा ५ वी किरण वी० पी० से भेजने पर आप को १० पाने अधिक देना पड़ेंगे। मुझे आशा है कि आप अनेकान्त की किरण पहुँचते ही ६) रुपया मनीआर्डरसे भेजकर अनुगृहीत करेंगे। मैनेजर अनेकान्त, वीर सेवा मन्दिर २१ दरियागंज, दिल्ली ।
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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