________________
समन्तभद्रका समय
(डा० ज्योतिप्रसाद जैन, एम. ए., एल. एल. बी.) आधुनिक युगमें स्वामी समन्तभद्की ऐतिहासिकता शताब्दियोंके मध्यवर्ती किसी समयमें ही वे हुए हैं । स्थूलएवं समयादिका सूचन डाक्टर श्रार. जी. भंडारकर, के, बी. रूपसे विचार करने पर हमें समन्तभद्र विक्रमकी प्रायः पाठक, सतीशचन्द्र विद्याभूषण, ई. पी. राइस, लुइसराइस, दसरी या दपरी और तीसरी शताब्दीके विद्वान् मालूम
आर. नरसिंह प्राचार्य, रामास्वामी अायगर श्रादि प्राच्य होते हैं।न्ति निश्चयपूर्वक यह बात भी अभी नहीं कही विदोंने अपने-अपने लंग्वों एवं ग्रन्थों में सर्वप्रथम किया था। जा सकती। समन्तभद्-सम्बन्धी ये मृचन और विवेचन अत्यन्त संक्षिप्त और प्रायः चलतऊ थे । अपनी परंपरामें प्रचलित अनुभूति
मुख्तार साहबके इस निबन्धके प्रकाशनके उपरान्त भी
कई विद्वानोंने समन्तभद्रको विक्रमकी श्वीं, छठी या ७वीं के अनुसार जैनोंकी यह धारणा रहती श्राई है कि प्राप्त
शताब्दीका विद्वान् ठहरानेका प्रयत्न किया। दूसरे विद्वानोंमीमांसा स्वयंभूस्तोत्र, स्नकरंडश्रावकाचार प्रादिके रचयिता।
ने इन नवीन मतोंका सफल खंडन भी किया। सन् १९४७ महान् दिगम्बराचार्य स्वामी समन्तभद्र विक्रमकी दूसरी
ई० में हमने भी 'म्वामी समन्तभद्र और इतिहास' शीर्षक शताब्दीमें हुए थे। डा. भंडारकरको शक संवत् ६० (सन्
एक विस्तृत लेख द्वारा ईस्वी सन्की प्रारम्भिक शताब्दियोंके १३८ ई०) में समन्तभद्रके होनेका उल्लेख लिये हुए एक
दक्षिण भारतीय इतिहासकी पृष्ठभूमिमें स्वामी समन्तभद्रका पट्टावली प्राप्त हो गई जिससे उपरोक्त जैन अनुश्रुतिका
समय-निर्णय करने और उनके इतिवृत्तका पुनर्निर्माण समर्थन होता था-संभव है कि वह पदावली ही उक्त
करनेका प्रयत्न किया था। उस लेखका सारांश वर्णी अभिअनुच तिका मूलाधार रही हो। डा० भंडारकरकी उक्त
नन्दन ग्रन्थमें प्रकाशित हुआ था। स्थानाभावके कारण सूचनाके आधार पर अन्य अधिकांश विद्वानोंने समन्तभद्रके
ग्रन्थके संपादकोंने उक्त लेखमेंसे विभिन्न मत-मतान्तरोंकी उक्त परम्परा-सम्मत समयको साधार होनेके कारण प्रापः
मालोचना तथा राजनैतिक इतिहासके विवेचनसे संबन्धित मान्य कर लिया। किन्तु डा० पाठक और डा० विद्याभूषण
कई बड़े बड़े अंश छोड़ दिये थे। इस लेख में हमने समस्त ने उसे मान्य नहीं किया। प्रथम विद्वान्ने उसके स्थानमें
उपलब्ध प्रमाणों एवं ज्ञात मतोंकी आलोचना एवं विवेचन ८वीं शताब्दी ई०के पूर्वार्धमें तथा दूसरेने छठी शताब्दी ई.
करते हुए स्वामी समन्तभद्रका समय १२०-१८५ ई. के अन्तके लगभग समन्तभद्रका होना अनुमान किया।
निर्णय किया था और यह प्रतिपादित किया था कि उनका स्वामी समन्तभद्र के अनन्य भक्त, उनके इतिहासके जन्म पूर्वी तटवर्ती नागराज्यसंघके अन्तर्गत उरगपुर (उरैयूर अथक गवेषक तथा उनकी वाणीके उत्पाही प्रभावक पं० वर्तमान त्रिचनापल्ली) के नागवंशी चोल-नरेश कीलिकजुगलकिशोरजी मुख्तारने लगभग तीस वर्ष हुए अपने वर्मनके कनिष्ठ पुत्र एवं उसके उत्तराधिकारी सर्ववर्मन प्रायः दो सौ पृष्टके महत्त्वपूर्ण निबन्धमें स्वामी समन्तभद्- (सोर नाग) के अनुज राजकुमार शांतिवर्मनके रूपमें सभवके इतिहासका विवेचन किया था और उस निबन्धके लगभग तया सन् १२० ई० के लगभग हुआ था, सन् १३५ प्राधे भागमें बहुत विस्तार एवं ऊहापोहके साथ उक्त (पट्टावली प्रदत्त शक सं०६०) में उन्होंने मुनिदीक्षा प्राचार्यके ममयको निर्णय करनेका प्रयत्न किया था। उन्होंने ली और १८५ ई. के लगभग वे स्वर्गस्थ हुए प्रतीत होते पाठक, विद्याभूषण प्रभृति उन विद्वानोंकी युक्तियोंको जो हैं। अभी हालमें ही अपने ग्रन्थ 'स्टडीज इन दी जैना समन्तभद्रको अपेक्षाकृत अर्वाचीन सिद्ध करना चाहते थे, सोर्सेज श्राव दी हिस्टरी आव पुन्शेन्ट इंडिया' के लिये निस्पार सिद्ध कर दिया था। किन्तु स्वयं भी केवल इसी समन्तभद्र-सम्बन्धी समस्त सामग्रीका पुनः प्राडोलन निष्कर्ष पर पहुँच सके थे कि '..समन्तभद्र विक्रम को परीक्षण करने पर भी उपरोक्त मतको संशोधित या परि पांचवीं शताब्दीसे पीछे अथवा ईस्वी सन् ४५० के बाद पर्तित करनेका कोई कारण नहीं मिला। नहीं हुए, और न वे विक्रमकी पहली शताब्दीसे पहलेके अब अनेकान्त वर्ष १४ किरण के पृष्ठ ३-८ पर श्री ही विद्वान् मालूम होते हैं-पहलीसे पांचवीं तक पांच मुख्तार साहबका 'समन्तभद्रका समय-निर्णय' शीर्षक लेख