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________________ २७.] अनेकान्त [ वर्ष १४ - ग्रहण किये हैं। उनमें परिग्रह-परिमाण व्रतके अन्त- वाले उन गरीब परिवारोंके घर भिजवा दिया, र्गत आजके दिन मेरे जितना परिग्रह है, उतनेसे जिनके कि घर दूध नहीं होता था। अधिकका परित्याग किया है। अतएव आगे प्रतिदिन वर्षके अन्तमें मुनीमोंने व्यापारका वार्षिक होनेवाली आमदनीसे मुझे सूचित किया जाय। चिट्ठा तैयार किया और बतलाया कि विभिन्न मदोंसे दूसरे दिन बगीचोंसे फलोंसे भरी हुई अनेक सब कुल मिलाकर इतने लाख रुपयोंकी नकद श्रामगाड़ियाँ आई । आनन्द फलोंको देखकर मनमें दनी हुई है। आनन्द तो प्राप्त पूंजीसे अधिक रखनेविचारने लगा कि उन्हें बाजारमें बिकवानेसे तो का त्याग कर चुका था । अतएव उसने अपने ग्राम धनकी निर्यामत सीमाका उल्लंघन होता है। अतएव और नगरके सारे निर्धन साधर्मी बन्धुओंकी सूची इनका वितरण कराना ही ठीक होगा, ऐसा विचार तैयार कराई और उनमेंसे प्रत्येकको यथायोग्य पू जी कर घरके लिए आवश्यक फलोंको रखकर शेष प्रदानकर उनके जीवन-निर्वाहका मार्ग खोल दिया। फलोंको नौकर-चाकर. पुरा-पड़ौस और नगर- इस प्रकार वर्ष पर वर्ष व्यतीत होने लगे और निवासियोंके घर भेंट-स्वरूप पहुँचा दिये । यह क्रम आनन्दका यश चारों ओर फैलने लगा। लोग उसने सदाके लिए जारी कर दिया और बगीचोंसे भगवान महावीरके धर्मकी प्रशंसा करने लगे। प्रतिदिन आनेवाले फल नगर में सर्वसाधारणको आनन्दके दिन भी आनन्दसे व्यतीत होने लगे। वितरण किये जाने लगे। इमा प्रकार जरूरतसे आनन्द करोड़ोंके अपने मुलधनको सुरक्षित रख अधिक बचनेवाला दध भी गरीबोंको वितरण किये करके भी महादानी और ग्राम, नगर एवं देश जानेकी व्यवस्था की गई। वासियोंके प्रेमका पात्र बन गया। कुछ समयके पश्चात खतोंसे धान्यकी फसल काश, यदि भाजके धनिक लोग अानन्द सेठका तयार होकर आई। उसमें से जितना बीज बोया प्र या अनुसरण करें, अपने को प्राप्त वैभवका स्वामी न गया था, आनन्दने उतना भण्डारमें भिजवा दिया। ममझकर उसका ट्रष्टी या संरक्षक समझ, तो कुछका वर्षभरके लिए घरू खर्चको रखकर शेष समाजमें जो विषमता और असन्तोष है, वह सहज धान्य नगर-निवासी गरीब परिवारोंके घर भिजवा ही दर हो जाय । धनिकोंका धन भी सुरक्षित बना दिया। अकेले-दुकेलोंके लिए सदावर्त बटवानेकी रहे और वे सर्वके प्रेम-भाजन बनकर सुख-शान्तिव्यवस्था की, तथा वृद्ध, अनाथ अपंग, रोगी और मय जीवन-यापन कर सकें। ऐसा करनेसे परिग्रहअपाहिजोको खाने-पीने के लिए स्थान-स्थान पर को जो पाप कहा गया है, उसका प्रायश्चित्त भी भोजन-शालाएँ खोल दी। सहज में हो जाता है । नथा सम्पत्तिका संग्राहक और कालक्रमसे गायोंके जननेके समाचार प्राने उपभोक्ता सहजमें दातार बनकर यशोभागी बनता है लगे। तब आनन्दने अपने लिए नियत संख्याकी और एक महान पुरुष बन संसारके सामने आता गाएँ रखकर शेष दूध देनेवाली गायोंको बाल-बच्चों है। अनेकान्तके ग्राहकोंसे निवेदन अनेकान्तके ग्राहकोंसे निवेदन है कि जिन ग्राहकोंने अपना वार्षिक चन्दा ६) रुपया और उपहारी पोष्टेज ११) कुल ७१) रुपया मनीआर्डरसे अभी तक नहीं भेजा है, वे किरण पाते ही शीव्र मनीआर्डरसे भेज दें जिन प्राहकोंकी बो. पी. उनको अनुपस्थितिमें वापिस हो गई है, उनसे निवेदन है कि वे अपना वार्षिक मूल्य शीघ्र ही मनीआर्डरसे १० मई तक भेजकर अनुग्रहीत करेंगे। मैनेजर अनेकान्त-वीर सेवामन्दिर, २१ दरियागंज दिल्ली।
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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