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________________ १६.] अनेकान्त वणे १४ - अन्त व सिद्ध हो मूर्तियोंकी पाका मूर्तियों में प्र काप्ठ आदि पदार्थोमेंसे रूप-सहित व रूप-रहित उत्कीर्ण वचन-शैली साधु या साध्वीके लिए वर्ण है। अपितु यों हुए प्रतिबिम्ब जिन्हें जिन, शिव, विष्णु, बुद्ध चंडी, कहना चाहिए कि वायु गुह्य अनुपारी मेघ छा गये हैं, मुक क्षेत्रपाल प्रादि मंज्ञाएं दी जाती हैं। पूज्य बन जाते हैं। गये है, बरसने लगे हैं। चूंकि इनमें मान्यता द्वारा कल्पित देवत्वका समावेश किया जैन अनुश्र तिमें अर्हन्त व सिद्ध देवोंकी मानवाकार जाता है। इसी तरह कम्पना-द्वारा भवनपति व्यन्तर, मतियोंकी चर्चा प्राचीन कालसे चली आती है। उड़ीसा ज्योतिष और वैमानिक देवोंके गुणोंका मूर्तियोंमें प्रदर्शन देश में उदयगिरि खंडगिरि-स्थित कलिंग सम्राट खारवेलके माना जाता है और ठीक इसी तरह अर्हन्तों, सिद्धों आदि- जिम आदिनाथ उपभकी मूर्तिका उल्लेख है उसमे नन्दवंश की मूर्तियों की स्थापनाके समय तथा घरेलू जलाशयों और काल तकमें भी तीर्थकरोंकी मूर्तियोंका होना सिद्ध कूप-सम्बन्धी देवताओंकी स्थापनाके समय उनमें दिव्य होता है। गुणों व विभूतियोंकी मान्यता की जाती है, उनका मूर्तियों में जमा कि कल्पसत्र में वर्णन है पशुओं और देवताओंके वास्तविक अवतरण अभिन नहीं होता । जब किमी चित्र यवनिका पर चिनिन किये जाते थे। 'अन्तगडदशानी रूप सहित या रूप-रहित पदार्थोंमें संस्कारों-द्वारा यह धारणा सत्त में कथन है कि सलमाने हरि नैगमेपित देवकी मूर्तिको बना ली जाती है कि उसमें अमुक पुरुष व देवके समस्त । प्रतिष्ठित किया था और वह प्रतिदिन उपकी पूजा किया शास्त्रीय लक्षण विद्यमान हैं, तो वह पदार्थ उस पुरुष व करती थी। प्रायः प्राचीनतम उपलब्ध जैन मुनियां कुशान देवका प्रतिनिधि बन जाता है। धारणा-द्वारा गुणांका न्यास कादकी हैं। यद्यपि तीर्थकरोंकी दो दिगम्बर मूर्तियां मौर्य या स्थापना ही प्रतिष्ठा है। कालकी भी उपलब्ध हुई हैं। परन्तु पूजायोग्य वस्तुओंक श्रुतेन सम्यग्ज्ञानस्य व्यवहारप्रसिद्धये स्थाप्यम्य व कभी कभी उन बग्तुओंक भी जो केवल लौकिक महत्त्वकी कृतनाम्नोऽन्तः स्फुरती न्यासगाचरे साकारे वा हैं, या जो वैज्ञानिक धारणाको लिए हुए है बहुतसे निराकारे विधिना यो विधीयते न्यासदिम प्रतीक व प्रतीकात्मक रचना जनकलामें और भी अधिक त्युक्त्वा प्रतिष्ठा स्थापना च मा । प्राचीन कालसं पायी जाती हैं। उक्त स्थापनावाद जैनधर्मके देव-मूर्तिवाद से पूरे तौर पर मेल खाता है। क्योंकि परमेष्ठी जिन मुक्त श्रात्मा हैं और वे जब, अचेतन प्रस्तर व काप्ठखंडोंमें अवतरित नहीं जैनकलाकं प्रतीकोंका उल्लंम्ब हम अग्निक प्रतीकसे हो सकते, जैसे कि शिव, विष्णु श्रादि हिन्दू देवताांक प्रारम्भ करते है अग्नितत्वका सम्बन्ध जागरण व बोधिसे सम्बन्धमें-कि जो अलौकिक शक्ति-सम्पन्न देव माने जाते है। आग्नेय शक्ति के अन्तिम स्रोत सूर्यको वेदों में जीवन और हैं-सम्भव हो सकता है। जैन और हिन्दू परम्परात्रों- चेतनाका सबसे बड़ा प्रेरक बतलाया गया है। यह प्रज्ञाकी में यह एक मौलिक अन्तर है, जिसे जैन मूर्तियोंकी स्थापत्य- अर्चिषा है जिसके द्वारा मारको पराजित किया जाता है। कलाको अध्ययन करते समय सदा ध्यानमें रखना जरूरी अमरावतीके वे उघड़े हुए प्रतीक जिनमें बुद्ध भगवानको है। जैनधर्ममें बुद्धिवाद यहां तक विकसित है कि वह अग्नि-स्तम्भके रूपमें दिखलाया गया है, वैदिक मान्यताओंक ब्राह्मणिक मान्यता समान अाकाश, मेघगर्जना व विद्य दुघटा ही अवशेष हैं। वहां अग्निको अप व पृथ्वीसे उत्पन्न हुआ में किसी देवत्वको मान्यता नहीं देता, उसके अनुसार ये बतलाया गया है, चूंकि यह स्तम्भ कमल पर आधारित है। सब प्राकृतिक व वैज्ञानिक परिणमन है जो उक्त प्रकारकी इसी तरह जैनधर्ममें अग्निको तेज व तेजस्वी श्रात्माका चिन्ह घटनाओंके लिए उत्तरदायी हैं जो वर्षा वायु में मौजूद किन्हीं माननेकी प्रथा इतनी ही पुरानी है जितना कि पुराने अंगामें परिवर्तनोंके कारण होती है, किसी दिव्य शक्तियोंकी आचारांग सूत्र | जनदर्शन में विश्वके सभी एकन्द्रिय जीवोंको इच्छाके कारण नहीं। यह कहना सब असत्य है कि विश्वमें कायकी अपेक्षा पांच भेदोंमें विभक्त किया गया है-वायुआकाश-देवता, गर्जन-देवता, विद्यु द् देवता श्रादि कोई देव कायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, पृथ्वीकायिक और सत्तामें मौजूद है, या यों कहना चाहिए कि देवता वर्षा वनस्पतिकायिक । जैनतत्त्वज्ञानके कायवादके अनुसार करता है इस प्रकारकी सब बातें असत्य हैं। इस प्रकारकी एकेन्द्रिय जीवोंकी उक्त कायिक-विभिनता उनके पूर्वोपार्जित
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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