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________________ जैनकलाके प्रतीक और प्रतीकवाद (लेखक-ए. के. भट्टाचार्य, डिप्टीकोपर-राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली) अनुवादक-जयभगवान जैन, एडवोकेट जैन, बौद्ध नथा ब्राह्मण परम्परा में (anmcomic) हैं, अपितु इसलिए कि वे उनके गुणोंका असली सार लिए अतत्-प्रतीकोंकी रचना इस ढगसे की जाती है कि उनमें हुए हैं। इन भौतिक पदार्थोमें दिव्य गुणोंका प्रदर्शन ही सस्थापित मनुष्य या वस्तुकी सजीव छवि दिखाई नहीं उन्हें अभिप्रेत है, ताकि इनके दर्शनोंसे भक्कोंके मनमें दिव्य पड़ती । मानव मस्तिष्कने अत्यन्त प्राचीन कालसे ही सत्ताका आभास हो सके । इन मूर्तियोंकी पूजाका अभिप्राय परम देववकी कल्पना सर्वथा समान प्रतिरूपमें न करके इनके द्वारा प्रदर्शित दिव्यात्माओंकी पूजाके अतिरिक्त और अनत्-प्रतीकोंमें की है। नगर ये प्रतत्-प्रतीक कुछ ऐसे कुछ भी नहीं है। इस तथ्य के आधार पर ही किसी सरोवर भावों और मूल्यों से सम्बन्धित हैं जो इन्हें सजावटी व व भवनके अधिष्ठातृ देवकी मान्यताका वास्तविक अर्थ कलात्मक रूपोंमे विलग कर देते हैं । ये अपना मुकाव आंखों- हमारी समझ में आ सकता है। इस तरह तीर्थकरकी मूर्ति, को नहीं, अपितु मनको देते हैं। भारतीय धर्मो व एक धर्मप्रवर्तक व धर्मसंस्थापकक उन सभी सम्भाव्य पारमार्थिक विचारणायाम सांसतिक पूजाका इनिहाय दिव्य गुणोंका मामूहिक प्रतीक है। जिन्हें देखकर साधकके इतना ही पुराना है जितनी कि धार्मिक परम्पराएँ। रूप- चित्तमें इनके प्रति श्रद्धा पैदा होती है। इसीलिए कहा भेद व मूर्तिकला जिसका प्रिय मानवाकार मूर्तियोका गया हैअध्ययन है नितान्त एक उत्तर कालीन विकास है। 'प्रतिष्ठानाम देहिनां वस्तुनश्चप्रारम्भिक बौद्ध-साहित्यमें हमें बुद्ध भगवान द्वारा कहे प्राधान्यमान्यवन्नुहेनुकंम कर्म' हुए ऐसे वाक्योंका परिचय मिलता है जिनमें मानवाकार अर्थात् प्रतिष्ठा एक प्रकारका संस्कार है, जिसके द्वारा मूर्तियों के लिए अचि प्रकट की गई है। उन्हीं स्थलों पर संस्थापित पुरुष व वस्तुकी महत्ता और प्रभावको मान्यता ऐम चन्यों को मान्य टहराया गया है जिनकी गणना दी जाती है। अानुपाङ्गिक प्रतीकों में की जा सकती है। इनका प्रयोग स्थापना या प्रतिष्ठावाद प्रतिनिधि स्पस एस समय लिए है जब भगवान स्वयं एक यनि श्राचार्य पद पर आरूढ होने पर दीक्षित गिना उपस्थित न हों। ये प्रानुपङ्गिक प्रतीक बौद्ध-कलाकी जाता है। एक ब्राह्मण वेदिक माहिन्यके अध्ययन द्वारा विशेषता है। जैनकलामें इसकं समान कोई रूप दग्वनमें दीक्षित होता है. एक क्षत्रिय राज्य-शासन संभालने पर. नहीं पाता। जैनलोगोंने अपनी पांडुलिपियां तथा धार्मिक एक वैश्य वैश्य-नि धारण करने पर, एक शूद्र राजकीयशिल्पकलाम जिन सांकेतिक चिन्होंका प्रयोग किया है वे अनुग्रहका पात्र होने पर और एक कलाकार उसका मुखिया अधिकतर एक या कई पूज्य वस्तुओं के प्रतीक है। भारभिक नियुक्त होने पर दीक्षित कहा जाता है। इस प्रकारकी बौद्धकलामें मूर्तिकलाका प्रभाव और उत्तरकालमें उसकी दीक्षा व मान्यताके समय इनके भाल पर तिलक लगाकर बाहुल्यताका कारण बुन्द्र भगवान की मूर्तिकलाके प्रति इनको सम्मानित किया जाना है। इन तिलक श्रादि चिन्होंउपयुक अमचि बतलाई जाती है। एक बौद्ध, उपासककी का यद्यपि भौनिक दृष्टिसे कोई विशेष मूल्य नहीं है, व्याख्या करते हुये 'दिव्यावदान' में स्पष्ट कहा है कि वह तथापि ये मामाजिक महना मान्यताके प्रतीक होनेसे मूर्ति व विम्ब की पूजा नहीं करता, अपितु वह उन बडे महत्त्वक हैं। इसी तरह मूनिमें जिन भगवान्क समस्त श्रादर्शोकी पूजा करता है जिनक कि वे प्रतीक हैं। दिव्य गुणांका न्यास व स्थापन ही प्रतिष्ठा है। अथवा हिन्दु तथा बौद्ध लोगोंके समान जैन लोग भी मूर्तिपूजा बिना किसी रूपके उनकी कल्पना करना हो प्रतिष्ठा है। के महत्व-सम्बन्धी अपने विशेष विचार रखते हैं। इनके मे अवसर पर या तो जिन भगवानके व्यन्निवका उनके अनुसार मूर्तियोंकी स्थापना इसलिए नहीं की जाती कि वे गुण-मगृह में प्रवेश कराया जाना है, या गुण-समूह देवताके तीर्थकरों व अन्य माननीय देवताओंकी समान प्राकृतियां व्यक्तित्वका अतिक्रम कर जाते हैं । इस तरह प्रस्तर, धातु,
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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