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किरण ७] जैनकलाके प्रतीक और प्रतीकवाद
[ १६१ कमों पर श्राधारित है। जब कोई जीव तेजस्कायिक या तथा अमरावतीमें श्राग्नेय स्तम्भोंका जिन प्रतीकों द्वारा अग्निकायिक हानका कर्भ वन्ध करता है, तो वह माधारण प्रदर्शन किया गया है, वे बौद्ध-कलामें फैले हुए त्रिशूलके अग्नि दीपशिखा, बडवानता, व विद्युत्, तंज श्रादि कोई-मा प्रतीकस घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हैं । इस स्थल पर हमें इस भी रूप धारण कर सकता है। जैनप्रथाक अनुग्गर अग्नि, बातका ध्यान रखना चाहिए कि त्रिशूलका प्रतीक न केवल बार या वाणीका अधिष्ठान देवता भी है। जन अन्यों में जैन और बौद्ध कलामें ही पाया जाता ह, अपितु इसकी जिन १६ शुभ मानांका उल्लेख पाया है, उनमें एक अग्नि- परम्परा बहुत पुरानी है। वास्तव में वैश्वानर अग्निके शिग्वा-विषयक भी है। तेजम् सम्बन्धी जैन धारणा इतनी त्रिभावोंकी तीन शूलधारी त्रिशूलके प्रतीकमें कायापलट हो सम्पूर्ण है कि यह धूम-रहित अग्नि शिग्वाको ही शुभ स्थान- गई है । पीछेको शैव कलामें तो त्रिशूलका शिवके साथ का विपय मानती है। अग्नि-शिग्वा जो शुभ स्वप्नका विशेष सम्बन्ध रहा है। मथुराके पुराने सांस्कृतिक केन्द्रसे विषय मानी गई है, उप तेजस्वी प्रान्माका ही सांकेतिक जो कलाकृतियां प्राप्त हुई हैं, उनसे तो यह सम्बन्ध और प्रतिरूप है, जो इस स्वप्नका प्रतिमें स्वर्गसे अवतरित हो भी पुराना सिद्ध होता है। मोहनजोदडोकी प्रागैतिहासिक जन्म लेनेवाली है। यह धारणा जैनियोंक पटलेश्यावाद सस्कृतिको दबनेसे इस सम्बन्धका प्रारम्भ और भी अधिक या जीवन परणति बाइसे भी बहुत मेल म्बाती है। यहां प्राचीन हो जाता है। कडफिसिस द्वितीयके शैव सिक्के यह बतलाना मचिकर होगा कि उन पट विभिन्न लेश्याओं तथा मिर्कपकी शैव मुहर शैवधर्मके साथ त्रिशूलका सम्बन्ध या षट् प्रकार की जीवन परिणतियोमेस प्रत्यकका अपना व्यक्त करनेके सबसे पुराने उदाहरण हैं । जैनकलामें त्रिशूल अपना विशेष वर्ण है । अग्नि व तेजस लेश्याका वर्ण उदीय. दिग्देवनाका एक पुराना प्रतीक रहा है। धार्मिक तथा मान मृर्यक समान दमकने हुए सुवर्णवत होता है। यह लौकिक वास्तुकलाके भवन निर्माणके स्थान पर धार्मिक तंजमशक्ति या जीवन-प रणति जैन मान्यतानुसार कठोर भावनास कूर्मशिला स्थापित करनेका विधान मिलता है। तपस्या-द्वारा मिन्द्र होती है । साधारणतया यह शक्ति लोक- यही विधान उत्तरकालीन जैन शास्त्रों में भी पाया जाता है। उपकारक अर्थ प्रयुक्त होती है, परन्तु कभी कभी साधक 'वत्थुमारपयरणं में उन परम्पराका अनुसरण करते हुए इसका प्रयोग रोषक अावशमें विष्वमक ढंगसे भी कर बैठता कृर्मशिलाकी स्थापनार्थ न केवल उसी प्रकारके मंत्रोंका है। प्राग-विज्ञानकी दृष्टिस मानव-दह चार अन्य तत्त्वांक उल्लेख किया गया है, अपितु इस शिलाकी आठ दिशामों में अतिरिवाजम्म तत्वका भी बना हुश्रा कहा जाता है । यह दिक्पालांक पाठ प्रतीक रखे जानेका भी विधान है। इनमेंमा यता दहकी क्रियात्मक रचना पर अवलम्बित है। वह से पाठवें दिक्पालके लिए जिन प्रतीकका प्रयोग हुना है, नेज जो जीवन-रचनाकी सुरक्षा करता है, अनादि अग्नि वह त्रिशूल है। यह शिलाकी सौभागिनी पर रक्खा जाता व प्राथमिक अनादि जीवन-निका ही अंश है। है। यहां त्रिशूल पाठवें दिपाल ईशानके तांत्रिक चारित्रत्रिशूल का प्रतीक
को व्यक्त करता है । यह वास्तवमें इस बातको स्पष्ट कर
दना है कि बौद्ध और जैनधर्मोमें रत्नत्रयको प्रकट करनेके बौद्ध धर्म और कहर ब्राह्मणिक धर्ममें जीवन-सम्बन्धी
लिए प्राचीनकालस-पभवन. कुशानकालसे-जिस त्रिशूलकी विचारणाकं फलस्वरूप 'जीवन-वृक्ष' प्रतीकका एक विशेष
मान्यता चली आती है, वह जैनियोंकी धार्मिक प्रतत्कनामें स्थान है । कलामें चाहे वह हिन्दु, बौद्ध या जैन कोई भी
एक मौलिक तथ्यको लिये हुए है । इस सम्बन्धमें मथुराके कला हो, जीवन सम्बन्धी सांकेतिक चिन्हांका विवेचन करते
कंकाली टीलेसे प्राप्त उप जिन मूर्तिको दग्वना श्रावश्यक समय हम कदापि उनके मूल्य और महत्त्वको नहीं भुला
होगा, जिसके पदस्थलक अन-भागमें उघादे हुए त्रिशूल पर मकने । सांचीमें रन-जड़ित जीवन-वृक्षक शिर और पात्रोंका
__ रक्खे हुए धर्मचक्रकी साधुजन पूजा कर रहे हैं। यह शैली लेखककी उक्त धारण। सम्भवतः किमी श्रमवश बन बौद्धकलाकी उप प्राचीन शलीसं बहुत कुछ मिलती-जुलती बन गई है। अन्यथा, उन मान्यतासे जनदर्शनका कोई है, जिसमें स्वयं भगवान बुद्धका प्रतिनिधित्व करनेके लिए सम्बन्ध नहीं हैं। वास्तवमें यह वैदिक धर्मकी मान्यता है। धर्मचक्रका प्रयोग हुश्रा है। निःसन्देह बूल्हरके शब्दों में कह
-अनुवादक सकते हैं कि जैनियोंकी प्राचीनकला और बौद्धकतामें कोई
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