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________________ १६२] अनेकान्त [ वर्ष १४ विशेष अन्तर नहीं है। असली बात यह है कि कलाने कर-द्वारा स्पर्शित हो रहा है, भगवान् बुद्ध-द्वारा मृगदावनमें कमी साम्प्रदायिक रूप धारण नहीं किया। दोनों ही धर्मोने की गई प्रथम धर्म-प्रवर्तनाको चित्रित करता है। उत्तरोत्तर अपनी-अपनी कलाकृतियोंमें एक ही प्रकारके आभूषणों, कालमें सम्भवतः ये प्रतीक साम्प्रदायिकताकी संकीर्ण प्रतीकों तथा भावनाओं का प्रयोग किया है। अन्तर केवल सीमानोंसे बाहिर निकल गये हैं। क्योंकि जैनलेखक ठक्कुर गौण बातों में है। जैन परम्परामें रत्नत्रयका प्रतीक सिद्ध व फेरु लिखते हैं कि चक्रेश्वरी देवीका परिकर उस समय जीवन्मुक्त पुरुषोंके तीन मुख्य गुणों-दर्शन, ज्ञान, चारित्र- ___ तक पूरा नहीं होता, जब तक कि उसके पदस्थल पर दायेंको प्रगट करता है। बौद्ध परम्परामें यह त्रिशूल बुद्ध, धर्म बायें मृगोंसे सजा हुअा धर्मचक्र अङ्कित नहीं किया जाता। और सघ, इन तीन तथ्योंका द्योतक है। यही भाव बौद्ध यहां वह चक्ररत्न भी विचारणीय है, जो जैन परम्परामें परम्परामें कभी-कभी त्रिकोणाकार रूपसे 'बील' के कथना- चक्रवर्तीका प्रतीक व आयुष कहा गया है। जैनकलामें नुसार तथागतके शारीरिक रूपको व्यक्त करता है, और चक्रका प्रदर्शन ईस्वी सन्की कई प्रथम सदियों से ही हुया कभी-कभी त्रि-अक्षात्मक शब्द श्रीम्' से व्यक्त किया गया मिलता है। मथुराके कंकाली टीलेसे कुशानकालके जो है। ब्राह्मण परम्परामें यह त्रिशूल ब्रह्मा, विष्णु और शिव, आयागपट्ट अर्थात् प्रतिज्ञापूर्त्यर्थ समर्पण किये हुए पट्ट इस त्रिमूर्तिका द्योतक है। बौद्ध रत्नत्रयके विभिन्न प्रतीक निकले हैं, उनमें उस केन्द्रीय चतुर्भुजी भागके दोनों चक्र तक्षशिला ( Taxila) के बौद्ध क्षेत्रोंसे, तथा कुशानकाल- जिसके मध्यवर्ती दायरेमें ध्यानस्थ जिन भगवानकी मूर्ति के प्राचीन समयसे मिलते हैं । अङ्कित है और उसको छूते हुए सजावटी ढगसे चार कोणोमें धर्मचक्र श्रीवत्स और चार दिशाओंमें त्रिशूलके चिन्ह बने हैं, दोनों मथुराके कंकाली टीलसे प्राप्त उक्र मूर्तिका अध्ययन ओर स्तम्भ खड़े हुए हैं, उनमेंसे एक पर चक्र और दूसरे हमें यह माननेको विवश करता है कि इस पर उत्कीर्ण पर हस्ती अङ्कित है। इसी क्षेत्रके एक और पायागपह चक्र उस धर्म-भावनाका प्रतीक है जो प्राचीन तथा मध्य- (नं० ज० २४८ मथुरा संग्रहालय) में चक्र केन्द्रीय वस्तुके कालीन बौद्धधर्ममें मान्य रही है। वैष्णव-कलामें चक्रका रूपमें अंकित है, जो चारों ओर अनेक सजावटी वस्तुओंसे प्रतीक स्वयं भगवान् विष्णुसे घनिष्ठतया सम्बन्धित है। घिरा है। यह सुदर्शन धर्मचक्रकी मूर्ति है। इस चक्रमें जो ईसा पूर्वकी सातवीं सदीके चक्राङ्कित पुराने ( Punch- तीन सम केन्द्रीय घेरोंसे घिरा हुआ है-१६ पारे लगे हुए Marked) ठप्पेके सिक्के इस परम्पराकी प्राचीनता हैं। इसके प्रथम घेरेमें १६ नन्दिपद चिन्ह बने हैं। यह पट्ट सिद्ध करनेमें स्वयं स्पष्ट प्रमाण हैं। रत्नत्रयकी भावनासे भी कुशानकालीन है । राजगिरिकी वैभारगिरिसे गुप्तकालीन सम्बन्धित चक्र जैनकलाकी ही विशेषता नहीं है अपितु इस जो तीर्थकर नेमिनाथकी अद्वितीय मूर्ति मिली है, उसके प्रकार के चक्र कुशानयुगकी तक्षशिला कलामें भी पाये जाते हैं, पदस्थल पर दायें बायें शंख चिन्होंसे घिरा धर्म-चक्र बना जो निस्सन्देह बौद्धकला है। वहां यह चक्र त्रिशूलके साथ हुआ है। इसमें चक्रके साथ एक मानवी आकृतिको जोड़कर सांकेतिक ढगसे दिखाया गया है। वहां यह चक्र जो चक्रको चक्रपुरुषका रूप दिया गया है । यह सम्भवतः ब्राह्मत्रिरत्नके प्रतीक त्रिशूल पर टिका है और जिसके दोनों णिक प्रभाव की उपज है, वहां वैष्णवी कलामें गदा, देवी पावों में एक-एक मृग उपस्थित है और जो भगवान बुद्धके और चक्रपुरुष रूपमें श्रायुधोंको पुरुषाकार दिया गया है। सहिष्णुता-सुकरातकी पत्नी बहुत ही क्रोधी स्वभावकी थी। एक बार सुकरात रातको बहुत देरसे घर आए । अब पत्नी लगी बड़बड़ाने । बहुत समय बड़बड़ानेके बाद भी जब सुकरात कुछ नहीं बोले, तब पत्नीको और भी अधिक गुस्सा आया। ठंडके दिन थे, गुस्से में आकर उतनी ठंडमें उसने ठंडे घड़ेका पानी सुकरातके ऊपर उंडेल दिया । सुकरात मुस्कराते हुए बोले-प्रिये ! तूने उचित ही तो किया । पहले बादल गरजते हैं उसके बाद बरसते हैं। इसी प्रकार तूने गरज लिया फिर वर्षा की । यह तो प्रकृतिके अनुकूल ही किया है।
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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