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________________ किरण १०] खिमा हल पद लहै खिमा चंचल पद त्यागे । खिमा क्रोध रिपु नै खिमा निज मारग लागे ॥ जागे जग तज आप मैं भागे चम मिथ्यात मल । खिमा सहज सुख सासतो अविनासी प्रगटै अचल ॥६६ हिन्दी विस्तृत साहित्यकी खोज २६१ अधिक कहनेकी कितनी क्षमता है यह इस रचनाले मालूम पड़ जाता है। सभी दोहे सुन्दर एव अर्थ-बहुलताको लिबे हुये हैं । कविने इसे सम्बत् १७२५ में समाप्त किया था जैसा कि शतकके निम्न दोहोंसे जाना जा सकता हैउपजौ सांगानेरि कौं, अब कामांगढ वास । वहाँ हेम दोहा रचे, स्वपर बुद्धि परकास ||८|| कामांगढ़ सूबस जहां, कीरतिसिंह नरेस । अपने खडग बल बसि किये, दुर्जन जितके देस ॥ ६ सतरह से पचीस कौं बरतै संवत सार । कातिग सुदि तिथि पंचमी पूरन भयो विचार ॥ १०० ॥ एक आग रे एक सौ कीये दोहा छंद । जोहित बांचे पढ, ता उरि बढे आनन्द ॥१०१॥ कविने देहको दुर्जन मनुष्यसे उपमा दी है । जैसे दुर्जनको चाहे कितना ही खिलाया पिलाया जावे, अथवा प्रसन्न रखा जाये, किन्तु अन्तमें वह अवश्य धोखा देता है उसी तरह इस शरीरको भी दशा है। इसे चाहे कितना ही स्वस्थ रखा जावे, पर यह भी एक न एक दिन अवश्य धोखा देता है असन विविध विंजन सहित, तन पोक्त थिर जानि । अनुभौ अतीत आठ कर्म स्यौं अफास है ॥१॥ दुरजन जनकी प्रीति ज्यौं, देहे दगौ निदानि ॥१२॥ (३) उपदेश दोहा शतक भगवानके दर्शनोंके लिये यह मनुष्य स्थान-स्थान पर घूमता है किन्तु परमात्मा उसके घटमें विराजमान है जिन्हें वह कभी देखनेका प्रयत्न नहीं करता । ठौर ठौर सोधत फिरत, काहे अंध अबेव । तेरे ही घट वसो, सदा निरंजन देव ||२५|| हेमराज १७-१८वीं शताब्दीके हिन्दीके श्रेष्ठ गद्य लेखक हो गये हैं। इन्होंने प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में निबद्ध पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, गोमट्टसार कर्मकाण्ड, परमात्मप्रकाश श्रादि कितनी ही रचनाओंकी हिन्दी गद्यमें टीकाएँ लिखी हैं। इनकी भाषा सरल, सुसंस्कृत एवं भावपूर्ण है । अब तक इनकी १२ रचनाएँ प्राप्त हो चुकी हैं। इनके अतिरिक्त कुछ पद एवं गीत भी मिले हैं। हेमराज सांगानेर (जयपुर) में उत्पन्न हुए थे तथा कामांगद जाकर रहने लगे थे जहाँ कोर्तिसिंह नामक नरेश शासन करता था । साधारणतः कविका साहित्यिक जीवन सम्बत् १७०३ से १७३० तक माना जाता है। लेकिन सम्वत् १७४२ में इन्होंने रोहिणीव्रत-कथाको समाप्त किया था जिसकी एक प्रति मस्जिद खजूर देहलीके जैन मन्दिरके शास्त्र भण्डार में मिलती है। 'उपदेश दोहा शतक' नामक रचना अभी कुछ समय पूर्व जयपुरके ठोलियोंके जैन मन्दिर में शास्त्र- सूची बनाते समय मिली है। उपदेश दोहाशतक एक सुभाषित रचना है जिसमें सभी विषयों पर दो-चार दोहे लिखकर कविने avat fere परिचय दिया है। हेमराजमें थोड़े शब्दों में इस तरह से अध्यात्म सवैया हिन्दी भाषाकी एक अच्छी रचना है जिसका मनन करनेसे व्यक्तिका भटकता हुआ मन शुद्धोपयोगकी ओर लग सकता है। कविने प्रारम्भिक पथमें भी मंगलाचरण न करके उसमें भी अध्यात्मकी ही गंगा बहायी है तथा 'अनुभव' अर्थात् चिंतन, मनन ही starके विकासका एक मात्र साधन है तथा उसीसे स्वपरका विवेक हो सकता है यही सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है अनुभौ अभ्यास में निवास सुध चेतन कौ, रूप सुध बोध को प्रकास है । अनुभौ अनूप उपरहत अनत ग्यान, - अनुभौ अनीत त्याग ग्यान सुख रास है । अनुभौ अपार सार आप ही को आप जाने, आपही में व्याप्त दीसै जामैं जड नास है । अनुभौ रूप है सरूप चिदानंद चंद कवि कहता है कि जन्म, मृत्यु और विवाह इन तीनोंमें ही समान बातें होती हैं। लोग मिलने जाते हैं, बाजे बजते हैं, पान खाये जाते हैं और इत्र एवं गुलाल लगाई जाती है इसलिये क्यों फिर एकके प्राप्त होने पर प्रसन्न होते हैं तथा दूसरे समयमें विषाद करते हैंमिलै लोग बाजा बजै, पान गुलाल फुलेल जनम मरण अरु ब्याह में, है समान सौं खेल ||३६|| कविने कंजूसको दानीको पदवी किस व्यंग्यके साथ दी हैखाइ न खरचै लच्छि कौ, कहै कृपन जग जांहि । बडौ दानि वह मरत ही, छोडि चल्यो सब तांहि ॥ ६६ इसी तरहके सभी दोहे कविने चुन-चुन करके अपने दोहा शतक में रखे हैं । (श्री दि० जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजीके अनुसन्धान विभागकी प्रोरसे)
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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