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________________ % २६.1 अनेकान्त Eबंभण क्षत्रिय वैश्य न शुद्र, नहीं किया गया है। कविने अपने विषयमें भी कुछ नहीं अप्पा राजा नवि होय तुद्र ॥७॥ लिखा है। अधिकांश छन्दोंके अन्तिम चरणमें 'चन्द' शब्द प्रारमाके विषय में अन्य पद्यों में लिखा है का प्रयोग हुआ है तथा अन्तमें 'इति श्री अध्यात्म रूपचन्द अप्पा धनि नवि नवि निर्धन्त, कृत कवित्त समाप्त' यह लिखा हुआ है जिससे स्पष्ट हो नवि दुर्बल नवि अप्पा धन्न । जाता है कि यह रचना कविवर रूपचन्द-द्वारा निबद्ध है। मूर्ख हर्ण द्वष नवि ते जीव, किन्तु १५, १६वें पद्यमें 'तेज कहे' यह भी लिखा हुआ है। नवि सुखी नवि दुखी अतीव ।।७।। कविवर रूपचन्द संसारका स्वरूप वर्णन करते हुये कहते हैं:कविकी यह रचना कब समाप्त हुई थी इसके संबन्धमें एक वट बीज मांहि बुटो प्रतभास्यौ एक, तो शुभचन्द्रने कोई संकेत नहीं दिया है। परन्तु अपने नाम दिया है। परन्तु अपने नाम एक बूटा माहि सो अनेक बीज लगे हैं। का उल्लेख रचनामें दो तीन स्थानों पर अवश्य किया है। अनेकमें अनेक बूटा, बूटामें अनेक बीज, अन्तमें रचना समाप्त करते हुये इसमें अपना नामोल्लेख असे तो अनंत ग्यान केवलीमें जगे हैं। निम्न रूपसे किया है भैसी ही अनंतता अनंत जीव माहि देखी, ज्ञान निज भाव शुद्ध चिदानन्द, असे ही संसारका सरूप माहि पगे हैं। चीततो मृको माया मोह गेह देहए। कोई समौ पाव के, सरीर पायौ मानव को, सिद्ध तणां सुखजि मल हरहि, सुध ग्यान जान मोख मारग कुंबगे हैं।२।। आत्मा भावि शुभ एहए। संसारी प्राणीकी दशाका चित्र निम्न शब्दोंमें उपस्थित श्री विजयकीत्ति गुरु मनि धरी, ध्याऊँ शुद्ध चिद्रप। पद्रमा किया गया है - भट्टारक श्री शुभचन्द्र भणि था तु शुद्ध सरूप ।।६१॥ जीवतकी आस करै. काल देखै हाल डरै, २. अध्यात्म सवैयाः डोले च्यारू गति पै न आवै मोछ मग मैं। यह कविवर रूपचन्दकी रचना है जो १७वीं शताब्दीके माया सौं मेरी कहै मोहनीसौं सीठा रहै, एक उच्च माध्यात्मिक कवि थे। यद्यपि कविकी कितनी ही ताप जीव लागै जैसा डांक दिया नग मे ।। रचनाएँ तो पहिले ही प्रचलित हैं, तथा पंच मंगल जैसी घर की न जाने रीति पर सेती मांडे प्रीति, रचना तो सभीको याद है। किन्तु यह रचना अभी तक वाटके बटोई जैसे आइ मिले वग मैं॥ प्रकाशमें नहीं आयी थी, तथा कविकी अभी तक उपलब्ध पगल मौं कहै मेरा जीव जानै यहै डेरा, पंच मंगल, परमार्थ दोहा शतक, परमार्थ गीत तथा, नेमिनाथ कर्म की कुलफ दीयै फिरै जीव जग मैं ॥३०॥ रासो आदि से यह भिन्न रचना है। यह रचना भी जयपुरके सज्जन पुरुषका कविने जो वर्णन किया है वह कितना ठोलियोंके मन्दिरके शास्त्र-भण्डारमें उपलब्ध हुई है। सुन्दर एवं स्पष्ट है इसे देखियेअध्यात्म सवैया कविकी एक अच्छी रचना है जो अध्यात्म रससे प्रोत-प्रोत है । अध्यात्मवादका कवि द्वारा सज्जन गुनधर प्रीति रीति विपरीत निवारै। इसमें सजीव वर्णन हुआ है। विषयको दृष्टिसे ही नही सकल जीव हितकार सार निजभाव संभारे॥ किन्तु भाषा एवं शैलीकी दृष्टिसे भी यह उच्च रचना है। दया सील संतोष पोष सुख सब विध जाने। कविने श्रात्मा, परमात्मा, संसार-स्वरूप आदिका जो उत्कृष्ट सहा सहज सुधारस स्रवे तजै माया अभिमानै॥ वर्णन किया है वह कविकी प्रगाढ़ विद्वत्ताकी ओर संकेत जानै सुभेद पर भेद सब निज अभेद न्यारौ लखै। करता है। ऐसा मालूम होता है कि मानो कविवर रूपचन्द कहे 'चंद' जहां आनन्द अति जो शिव सुख पावैअखै इस विषयके माहिर विद्वान् थे । रचनामें १०० पथ हैं एक स्थान पर समाकी प्रशंसा कविने जो लिखा है जिनमें सवैया इकतीसा, सवैया तेईसा. कुण्डलिया प्रादि वह भी कितना रुचिकर हैछन्दोंका प्रयोग हुआ है। खिमा अलख है खेम खिमा सज्जन षट् काइक । कविने यह रचना कब लिखी थी इसका कहीं उल्लेख खिमा विषै परभाव खिमा निज गुन सुखदायक।। रस्न सन्दाह
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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