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राजस्थानके जैनशास्त्र-भंडारोंसे हिंदीके नये साहित्यकी खोज
(कस्तूरचन्द काशलीवाल, एम. ए. शास्त्री)
भारतीय विद्वानों ने हिन्दी भाषा एवं उसके साहित्यकी इससे हिन्दीकी विस्मृत रचनाओंको प्रकाशमें लानेके कार्यमें जो अमूल्य सेवाएँ की हैं वे इतनी विस्तृत एवं गहरी है कि सफलता मिलेगी। हम अभी तक उस विस्तार एवं गहराईका पता लगानेमें १. तवसार दहाअसमर्थ रहे हैं। वर्तमान शतान्दीकी तरह प्राचीन शता- भट्टारक शुभचन्द्र १६वीं शताब्दीके प्रमुख विद्वान हो ब्दियोंमें भी हजारों साहित्यिकोंने विपुल साहित्य लिखकर गये हैं। ये भट्टारक सकलकीनिकी शिप्य-परम्परामेंसे थे। हिन्दी भाषाकी सांगीण उन्नति करनेमें अथक परिश्रम शुभचन्द्र संस्कृत भाषाके उच्च कोटिके विद्वान थे तथा षट् किया था । १३-१४चीं शताब्दीसे ही विद्वानोंका ध्यान भाषा-चक्रवर्ती, विविध विद्याधर आदि उपाधियोंसे अलंकृत हिन्दी भाषाकी ओर जाने लगा था और उन्होंने हिन्दीमें थे। संस्कृतभाषामें इनकी ३० से भी अधिक रचनाएँ रचना करना प्रारम्भ कर दिया था। भारतके उत्तर प्रदेशको मिलती हैं। इन्हींके द्वारा हिन्दी भाषामें निर्मित तत्त्वसार छोड़ शेष प्रान्तोंकी अपेक्षा राजस्थानमें ऐसे विद्वानोंकी दहा अथवा दोहा अभी जयपुरके ठोलियोंके जैन मन्दिरके संख्या अधिक रही और वहींके निवासियोंने हिन्दी-साहित्यको शास्त्र-भण्डारमें उपलब्ध हुआ है । रचनामें जैन सिद्धान्तके अधिक प्रोत्साहन दिया । लेकिन दुःखके साथ लिखना पड़ता अनुसार सात तत्त्वोंका वर्णन किया गया है इसलिये यह है कि उनकी सेवाआके अनुसार हम उनका मूल्यांकन नहीं सैद्धान्तिक रचना है। तत्त्वोंके अतिरिक्त अन्य कितने ही कर सके और न उनके प्रति कोई सन्मान ही प्रकट कर साधारण जनताके समझमें आने वाले विषयोंको भी कविने सके । यद्यपि हिन्दी साहित्य के इतिहासमें बहुतसे विद्वानोंका रचनामें लिया है। सोलहवीं शताब्दीमें ऐसी रचनाओं के परिचय दिया जा चुका है तथा इसके अतिरिक्त भी विभिन्न अस्तित्वसे यह प्रकट होता है कि उस समय हिन्दी भाषाका लेखों, रिपोर्टोमें, पुस्तकोमें बहुतसं अज्ञात हिन्दी विद्वानोंका अच्छा प्रचलन था, तथा कथा, कहानी, पद एवं रासामों परिचय दिया जा चुका है किन्तु अब भी सैकड़ों ऐसे विद्वान् एवं काव्योंके अतिरिक्र सैद्धान्तिक विषयों पर भी रचनाएँ हैं जिनके सम्बन्धमें अभी तक कुछ भी नहीं लिखा गया है लिखा जाना प्रारम्भ हो गया था। तथा बहुत सी ऐसी रचनाएँ हैं जिन्हें हम भुला चुके हैं। तत्त्वपार दोहा १ पद्य हैं जिनमें दोहे और चौपाई इसका ममुख कारण राजस्थानमें स्थित जैन ग्रन्थ-भण्डारोके दोनों ही शामिल हैं । भ. शुभचन्द्रका गुजरात प्रमुख महत्त्वको नहीं प्रांका जाना है । इन भण्डारों में संग्रहीत केन्द्र होनेके कारण रचनाकी भाषा पर गुजरातीका प्रभाव साहित्यको प्रकाशमें लानेकी ओर न तो जैनोंने ही ध्यान स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। यह रचना 'दुलहा' नामक दिया और न जैनेतर विद्वानोंने ही उनके प्रभावको महसूस श्रावकके अनरोधसे लिखी गई थी क्योंकि विद्वान् लेखकने किया । नहीं तो जिन्होंने हिन्दी साहित्यके विकासकी नीव उसको कितने ही दोहोंमें सम्बोधित किया है :लगायी थी उन्हें भुलानेका हम साहस नहीं कर सकते थे। रोग रहित संगीत सुखी रे, सपदा पूरण ठाण । ___गत कुछ वर्षोसे राजस्थानके जैन-भण्डारोंके आलोकन धर्म बुद्धि मन शुद्धिडी, 'दुलहा' अनुक्रमि जाण ॥धा एवं सूची प्रकाशनका जो थोड़ा बहुत कार्य किया जा रहा सोक्षके स्वरूपका वर्णन करते हुए कविने लिखा हैहै उसम हिन्दीकी बहुत सी नवीन रचनाएँ सामने आयी कर्म कलंक विकारनो रे निःशेप होय विनाश। हैं। ये रचनाएँ सभी विषयोंसे सम्बन्धित है तथा जैन एवं मोक्ष तत्त्व श्री जिन कही, जाणवा भावु अल्पास ॥२६ जनेतर दोनों ही विद्वानोंकी लिखी हुई हैं । बहुत दिनोंसे अामाका वर्णन करते हुए कविने लिखा है किसीकी ऐसी एक लेखमाला प्रारम्भ करनेका विचार था जिसमें अज्ञात प्रात्मा ऊँची अथवा नीची नहीं है, कोंक सम्पर्कके कारण रचनाओंका परिचय होता | लेकिन सूची-प्रकाशन एवं अन्य उसे उच्च, नीचकी संज्ञा दे दी जाती है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, ग्रन्थोंके सम्पादन कार्यमें व्यस्त रहनेके कारण इस लेख- वैश्य एवं शूद कोई वर्ण नहीं है, क्योंकि अान्मा तो राजा मालाको प्रारम्भ नहीं किया जा सका । अब उस लेखमाला- है वह शूद्र कसे हो सकता हैको प्रारम्भ किया जा रहा है । लेखमें प्राचीन एवं महत्वपूर्ण उच्च नीच नवि अप्पा हुचि, रचनाओं का परिचय देने का प्रयत्न किया जावेगा। आशा है
कर्म कलंक तणो की तु सोइ ।