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________________ किरण ११-१२] जीवन-यात्रा [३२४ शताब्दीका विद्वान् बतलाना भी कल्पना मात्र है। साथमें नहीं दिया गया, न उस लेखमें पाया जाता है जो इनमेंसे किसीका भी निश्चित समय अभी तक स्थिर नहीं वर्णिअभिनन्दनग्रंथमें मुद्रित हुआ है और अपने जिस हो पाया फिर भी धवलादिग्रंथोंसे इतना स्पष्ट है कि पार्यमंतु नवीन ग्रंथका लेखकने उल्लेख किया है वह अभीतक और नागहस्तीको गुणधराचार्यके कसायपाहड़का ज्ञान मुद्रित होकर प्रकाश में नहीं पाया। श्राचार्य-परम्परासे प्राप्त हुया था। वे श्रा० गुणधरके साक्षात् ऐसी स्थिति में मैंने यह चाहा था कि लेखक महाशय शिष्य नहीं थे, उनसे यतिवृषभने उक्न पाहुड़का ज्ञान प्राप्त अपने कथनोंकी पुष्टिमें स्पष्ट प्रमाणोंको सामने किया था और इसलिये वे यतिवृषभके गुरु रूपमें लानेकी कृपा करें-कोरी कल्पनाओं पर ही उनका आधार समकालीन थे, जिनका समय ईसाकी पांचवीं शताब्दी पाया न रक्खें, जिससे लेखमें तदनुसार सुधार कर उसे जाता है । गुणधराचार्यका समय पं. होरालालजी सिद्धान्त छापा जाप, क्योंकि यदि शक संवत् ६. समन्तभद्रका शास्त्रीने कसायपाहुड़की प्रस्तावना (पृ०५८) में विक्रम पूर्व दीक्षा-समय सिद्ध हो और यह भी सिद्ध हो कि एक शताब्दी बतलाया है। तब गुणधरके समय-सम्बन्धमें वे चोल-नरेश कीलिकवर्माके कनिष्ठ पुत्र शान्तिवर्मा थे तो लेखकका यह कहना कि उसे ईसाकी पहली शताब्दीसे पूर्वका मुझे उसको मानने में आपत्ति नहीं होगी। परन्तु वे ऐसा कोई भी विद्वान नहीं मानता, समुचित नहीं कहा जा सकता। नहीं कर सके और लेग्यको ज्यों का त्यों छपाने की ही लेखमें यह भी व्यक्त किया गया है कि समन्तभद उनकी इच्छा रही । तदनुसार लेखको प्रकाशित करते नागवंशी चोज-नरेश कीलिक वर्मनके कनिष्ठ पुत्र तथा राज्यके समय मुझे यह सम्पादकीय नोट लगाने के लिये बाध्य उत्तराधिकारी सर्ववर्मन (मोरनाग) के अनुज राजकुमार होना पड़ा, जिससे व्यर्थक विचार-भेदको अवसर न मिले। शान्तिवर्मा थे परन्तु इसका भी कोई स्पष्ट आधार-प्रमाण जुगलकिशोर मुख्तार जीवन-यात्रा (लक्ष्मीचन्द्र जैन 'सरोज') कौन जाने किम समयसे पथिक पथमें जा रहा है? राह उसकी दीर्घ यद्यपि, किन्तु फिर भी पार पाने । लिये पाशा नहीं पाशा तो निराशा भी नहीं है। शक्ति उसकी न्यून यद्यपि, किन्तु फिर भी आजमाने ॥ वही ध्वनि श्री टेक भी वह, श्वांस तक वह ही बनी है। सहचरी श्राशा लिये निज-पद बढ़ाता जा रहा है॥1॥ उप सहारे ही बटोही, चला चजना जा रहा है॥६॥ काल उसका पूर्ण जब तक, हो नहीं कुल जायगा। एक मात्र पुकार उसने, हृदय-तन्त्रीकी सुनी जो। मार्ग उसका पूर्ण जब तक, हो नहीं तय जायगा । बाहर वही-भीतर वही, सभी कुछ पूंजी बनी जो॥ जायगा तब तक बढ़ा वह, यही समझे जा रहा है ॥२॥ प्राण सा पकड़े उसीको, जग-बटोही जा रहा है ॥ ७ ॥ बीज अंकुर बन जहाँ तक, खेतमें जब तक बढ़ेगे। रह जायगा बढ़ जायगा, चला चलना बम काम है। चरण उसके दिवस बेला जान कर जब तक बढ्गे॥ इसी में पाराम उमको, श्रम सा समझता नाम है। जायगा तब तक चला वह, लक्ष्य ले यह जा रहा है ॥३॥ देख लो वह देख लो वह रह रहा है बढ़ रहा है जा रहा है॥5॥ पवन जबसे चल रहा और सूर्य जबसे जल रहा है। प्रश्न जगका एक ही है और उत्तर एकही है। मलिल जबसे वह रहा ौ बर्फ बनकर गल रहा है । प्रश्नमें उत्तर बना तो प्रश्न-उत्तर एक ही है। पथिक सबसे चल रहा है, चला चलता पा रहा है ॥ ४ ॥ प्रश्नमें उत्तर लिये दर प्रश्न उत्तर पा रहा है । वह किमीकी राहको भी, भूल कर ना जानता है। कह रहा जो आज जग है, कह रही वाणी वही है। बाहिरी संकेत भी ना, पूर्ण कोई जानता है॥ कह रहा अाकाश भी वह, कह रही वसुधा वही है। कह न सकता वह स्वयं कुछ, कहा जो भी जा रहा है ॥५॥ कह रहा वह सुकवि जगका, कहा जो कुछ जा रहा है॥१०॥ जो न सुलझे वह पहेली, बन्धु जीवन यात्रा है।। सन्य समझो नहीं निश्चित, बन्धु जीवन मात्रा है। मैकड़ों दुख सहे सुग्नको, पथिक जीता जा रहा है ॥११॥ कौन जाने किस समयसे-पथिक पथमें जा रहा है।
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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