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________________ अविरत सम्यग्दृष्टि जिनेश्वरका लघुनंदन है (-श्री क्षुल्ललुक गणेशप्रसादजी वर्णी) जिस द्रव्यका जो गुण होता वह उसका स्व बानकी इच्छा नहीं करता। उसके लिये इच्छा ही कहलाता और जिसका जो स्व होता वह उसका परिग्रह है। महात्रताके और क्या होता है। स्वामी कहलाता है । आत्माका स्व ज्ञान है और सम्यक्त्वीके बहुन परिग्रह है तो मुनिके पीछी. आत्मा ही उसका स्वामी है पर-द्रव्य अपने कमण्डलु होता है। ये शिष्यों को पढ़ाते और वह स्वगुण-पर्यायोका स्वामी है। इम जीवको जब यह बाल-बच्चाको शिक्षा देता है। लेकिन अंतरंगसे अनुभव होने लगता है तब उसे ससारकी महानसे विचारो तो अभिप्रायमें दोनोंक ही किमी प्रकारकी महान सम्पदा भी नहीं लुभा पाती, चक्रवर्तीकी इच्छा नहीं है । दोनोंके इच्छाको मेटनेका अभिप्राय सम्पदा भी उसे नगण्य प्रतीत होने लगती है। है। मुनि इच्छाको शुभ कार्यों द्वारा मिटा देते और ___ वनदन्त चक्रवर्ती कमल कोशमें मरे हुए भौरेको वह विपयादि प्रवृत्ति-द्वारा अपनी इच्छाको मिटा देखकर विरक्त हो गये और अपने पुत्रोंको बुलाकर देता है। कहा-'राज्य संभालो।' पर उनके पुत्र तो उनसे सिद्धान्तकी प्रक्रिया बनी रहे इौलिये तो वीरभी अधिक विरक्त चित थे. कहने लगे-हम भी सेन सामीने 'धवलादि' जैसे महान टीका-ग्रन्थ आपके साथ हैं। पिने कहा-'अभी तुम्हारी वय रचे पंटोडरमलजीने सोचा कि आगेके जीव दीक्षा-योग्य नहीं, कुछ समय राज्य-भोग करनेके हमसे हीन-बुद्धिवाले होंगे तो उन्होंने प्राणियोंक पश्चात् दीक्षा लेना। पुत्र बोले-पिता जी ! यह कल्याणार्थ मूल ग्रन्थों पर हिंदी टीका आदि रच राज्य तो रागका घर है। जिम रागको आप शत्रु दिये। जो काम छटे गुणस्थानवर्ती मुनिने किया, समझके छोड़ रहे हैं, वह हमारे लिये ग्राह्य कैसे हो वही काम चीथे गुणस्थानवी जीयने कर दिया। सकता है ? आपती हमारे हितैषी हैं अतः रागके बतलाइये, अभिप्रायमें क्या अन्तर है ? कारणभूत यह राज्य-सम्पदा हमारे लिये हितप्रद हमसे पूछते हो जो १३ वें गुणस्थानवर्ती नहीं। हम भी आपकी ही तरह मुक्त होना चाहते जीवका अभिप्राय है वही अभिप्राय चौथे हैं। मनुष्य-पर्याय इसके अनुकूल है, अब तो इस गुणस्थानवी जीवका है। तीर्थकरका ठाठ देखो। जीवनमें रत्नत्रयकी आराधना कर सिद्धि प्राप्त करेंगे। इतना बड़ा समवसरण जिसकी महिमा देखते ही बनती है। तो क्या तोर्थकर महाराज उसको पिता-पुत्रका यह संवाद किस मनुष्यको एक चाहते हैं ? अव्रत सम्यग्दृष्टिके थोड़ी सी सामग्री क्षणके लिये विरागीन बना देगा। इसलिये रागको होती है तो क्या वह उसे चाहता है ? ज्ञान उनके छोड़ो। अकेली चीज थी, अकेली ही रह जाती अधिक है और इसके कम है, लेकिन है तो है। दूसरेके सम्बन्धसे राग होता तो उस संबंध जाति एक ही। वह समझता है जब यह तुम्हारा को हटाओ, रागको त्याग दिया तो रागक कारण- नहीं तब यह हमारा कैसे हो सकता है ? रागको भूत सामग्रीका तो स्वतः त्याग हो जाता । अब तमने हेय जाना तो हमने भी उसे हेय जान लिया। ये संबंध थोड़े ही दुख देते। इनको हम अपना जिस मार्गका तुमने आश्रय लिया उसी मार्गका बना लेते हैं तभी दुखी हो जाते हैं । अभिप्रायमें तो हमने आश्रम ले लिया, तब क्या हम आप जैसे यह ऐब निकल जाना चाहिये। ___ नहीं हो सकते ? इच्छा रागकी पर्याय है-चाहे वह शुभ हो जो जाणदि अरहतं दम्वत्त-गुणत्त-पज्जयत्त हिं। वा अशुभ । शुभ कार्योंके मूल में भी एक प्रकारकी सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तम्स लयं ॥ इच्छा है । संसारमें धर्म अधर्म-खान, पानकी ही जो अरहंत देवको द्रव्य-गुण-पर्यायसे जानता है तो इच्छा होती है। सम्यग्दृष्टि इनमें से किसी वह निश्चयसे अपनी आत्माके गुण-पर्यायको
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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