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________________ २६४ अनेकान्त [वर्ष १४ ज्ञानदेवने चेतनरायसे कहा कि हमारी फौज भी कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते क्योंकि अब मैंने अपने स्वरूपसज-धजके तैय्यार हैं। चेतनने देखा कि सैन्यदल तैय्यार का ठीक परिज्ञान कर लिया है और अपनी अदृश्य चैतन्य होगया है । ज्ञानदेव-प्रभो ! में आपसे एक निवेदन कर शकिको भी पहिचाननेका यन्न किया है। परन्तु तुम्हें मेरा देना चाहता हूँ यदि आप नाराज न हो तो कहूँ। साथ अवश्य देना होगा। वीरवर ! यदि तुमने दृढ़ताके चेतनराजा- वीरवर ! संग्राममें शत्रु पर विजय प्राप्त साथ मेरा साथ दिया, और मेरे विवेकका संतुलन बराबर करना तुम्हारे ही ऊपर निर्भर है इस समय तुम्हारे मुख- सुस्थिर रहा तो मोहका सैन्यदल मेरा कुछ भी बिगाड़ मुद्राकी अप्रसन्नता मेरे कार्यमें कैसे साधक हो सकती है? करनेमें समर्थ नहीं हो सकता। अत विवेक दूतको मोह अतएव तुम जो कुछ भी कहना चाहो निस्संकोच होकर राजाके पास भेज देना चा हये, पर अपने घर में शत्रुका कहो, डरनेकी कोई आवश्यकता नहीं। युद्धक समय वीरों- बुलाना उचित नहीं है जब हममें अनन्त शक्ति और अनन्त की बात कभी अम्वीकृत नहीं होती। रणनीति भी ऐसी सुख है, तब फिर इतना भय क्यों ? अस्तु ही है, रण विज्ञ राजा युद्धके अवसरों पर अपने वीरोंको ज्ञानदेवने विवेक दृतको बुलाया और कहा कि तुम कभी अप्रसन्न नहीं होने देते। अत: तुम निर्भयताके साथ मोह पर जाओ, और यह कहो कि- यदि तुम अपना अपनी बात कही। भला चाहते हो तो यहांस चले जाओ, यदि वह अन्यथा ज्ञानदेव-प्रभो! संग्राममें आक्रमण करनेस पूर्व दूत कहे तो तुम भी उस अपनी धोल बता दना और कह देना भेजकर शत्रुके प्रधानमंत्रीको या उनके किसी अन्य प्रतिनिधि कि तरा जितना जोर चले तू उतना जोर चला ले, वे सब को बुलवा लीजिये, तथा जहां तक बने इस समय संधि जीवक ही चाकर है. जो क्षणमात्रमें नष्ट कर देंगे। ज्ञानकर लेना ही उचित होगा।' दे ने तो तुम्हारी भलाईक लिये ही मुझे तुम्हारे पास भेजा चेतन राजा-ज्ञानदेव ! श्राज तुम युद्ध के अवसर पर था. अतः यदि तुम जीवन चाहने हो तो चेतनपुरको छोड़ कायर क्यों हो रहे हो? हमें अपनी शक्ति पर पूरा विश्वास दो। विवेक मोहक पास पाया श्रीर उसने मोहसे कहा कि है, संग्राममें हमारी अवश्य विजय होगी, पर तुम्ही बताओ, यदि तुम अपना भला चाहते हो तो यहां से भाग जाओ। घरमे क्या दुश्मनको बुलवाना उचित है ? राजनीति बड़ी दतक वचन सुनकर माह भाग बबूला हो गया और लाल गढ और विलक्षण होती है, अब मधिका कोई अवसर लाल आंखे निकालता हुआ गरज कर बोला-मैं शत्रुका नहीं है। इस समय युद्ध करना ही हमारे लिये उचित है। क्षणमात्रम नाश करूंगा। मेर अागे तरी क्या विमात, ज्ञानदेव-प्रभो! आप माहराजाकी अपरमित शक्लिसे मेरे एक ही वीर सुभट ज्ञानावीन केवल तुम्हें हा दुखी परिचित होकर भी इस प्रकारकी बातें कर रहे हैं। मैं नहीं किया किन्तु संसारके सभी प्राणियोंको परेशान कर जानता हूँ कि जब आपके सामने मोहके प्रधान सचिव, राग रक्खा है, फिर भी तुम्हें लाज नहीं पाती, जो मुझ जैसे और द्वेष नाना प्रलोभनों और अनेक सुन्दर नवयुवतियोंके राजाके आगे यहांसे हट जाने को कहते हो । अनन्तकालसे हाव-भावों नथा चंचल कटाक्ष बाणोंके साथ प्रस्तुत होंगे। तुम कहां रहे, अब तुम्हारी यह हिम्मत, कि तुम मुझसे उस समय क्या आपकी दृढ़ता सुस्थिर रह सकेगी ? यह लड़नेको तैयार हो गये। तुम चौरासी लाख योनियों में संभव नहीं जान पड़ता । श्राप मोहके लुभावने भयंकर अनेक स्वांग धारण कर नाचते रहे, उस समय तुम्हारा अस्त्रोंसे अभी अपरिचित हैं। इसीसे ऐसा कहते हैं। पुरुषार्थ कहां गया था, क्या कभी तुमने उस पर विचार चेतन राजा ज्ञानदेव ! यह तुम्हारा कहना ठीक है। किया है ? मैंने तुम्हें इतने दिन पाल-पोष कर पुष्ट किया है, मोह राजाने भ्रममें डालकर ही मेरे साथ अपनी पुत्रीका सो तुम उल्टे मुझसे ही लड़नेको तैयार हो गए हो, तुम पाणिग्रहण किया था। जिसके कारण मैंने क्या क्या कुकर्म नीच हो, तुम्हें लज्जा पानी चाहिये, तुम तो गुणलोपी नहीं किये हैं ? परन्तु अब हमें अपनी अतुलित शक्ति पर दुष्ट हो, ओ चेतनके पापी गुण, तुम सब अभी चले जाओ, पूरा विश्वास है। हम संग्राममें अवश्य विजयी होंगे, अब मुझे अपना मुख मत दिखायो । विवेक-गाजा मोहके तीक्षण उसके वे लुभावने अस्त्र-शस्त्र सब कुठित हो जावेंगे । रही वाक-बाण सुनकर किसी तरह ज्ञानदेवके पास आया और 3 युवतियोंके कटाक्ष वाणोंकी बात, सो वे अब मेरा मोहका सब समाचार कहा, कि मोह यहांसे नहीं भागता,
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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