SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 239
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण ७] साहित्य परिचय और समालोचन [२०१ कोई नवीन वस्तुएं नहीं थी । सिर्फ इसकी अपार शक्तिको हम (२) व्यर्थ अनावश्यक अन्न वस्त्रादिका संग्रह नहीं भूलसे गये थे। इन्हीं अहिंसा सत्य आदिको भगवान् करना अर्थात् अपरिग्रह । महावीर और महात्मा बुद्धने अपने पवित्र उपदेशों द्वारा (३) 'आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः' भारतके कोने कोने में प्रचलित किया था। भगवान महावीर अपनी प्रामाके समान विश्वके प्राणियोंको समझना। ने ही 'अहिंसा' यानी 'विश्व प्रेम' का इतना मुन्दर और अर्थात् अहिंसा आत्मीयताका विस्तार । सूचम विवेचन किया है कि जिसकी मिसाल नहीं मिल (४) विचार संघर्ष में समन्वयका उपाय-अनेकान्त सकती। उनका कथन था 'मनुष्यको अपनी आत्माको श्राज मनुष्यताका एकदम हास हो चुका, व हो रहाप्रतीत पहिचानना चाहिए, में स्वयं शुद्ध हूँ, बुद्ध हूँ, चतन्य हूं, होता है। पारस्परिक प्रेम और मैत्री भावकी कमी परिलक्षित सर्व-शक्ति सम्पन्न एवं वांच्छा-रहित हूँ, मुझे किसी भी हो रही है। पुराने व्यक्ति श्राज भी मिलते हैं तो आत्मीयता भौतिक पदार्थमें आसक्रि नहीं रखनी चाहिए, उनसे मेरा का अनुपम दर्शन होता है, वे खिल जाते हैं हरे भरे हो कोई चिरस्थायी सम्बन्ध नहीं। अगर मानव इस उपदेशको जाते हैं । चेहरे पर उनके प्रसन्नता-प्रफुल्लताके भाव ग्रहण करे, तो उसमें अनावश्यक वस्तुओंके संग्रहकी वृत्ति दृष्टिगोचर होने लगते हैं, पर आजके नवयुवकोंके पास बना(परिग्रह) ही न रहेगी। उसमें मूछों तीव प्रारम्भ व वटी दिखावेकी मंत्री व प्रेमके सिवाय कुछ है नहीं। बाहरके आसक्रि भी न रहेगी और जन्य चाहना न रही तो प्रतिस्पर्दा सहावने, चिकनी-चुपड़ी बातें, भीतरसे खोखलापन अनुभव वैमनस्य और कलह न रहेगा। जब ये सब नहीं रहेंगे तो होता है। इसीलिए पर-दुग्व-कातर विरले व्यक्कि ही मिलते फिर जन-समुदायमें अशान्तिका काम ही क्या है ? सर्वत्र हैं। अपना स्वार्थ ही प्रधान होता है। एक दूसरेके लगावशान्ति छा जायेगी और विश्वमें फिर अशान्तिके बादल और से ही स्वार्थ टकराते है और अशान्ति बढ़ती है। श्रारमीयतायुद्ध की भयङ्कर श्राशंका छा रही है वह न रहेगी। सर्वत्र के प्रभावसं ही यह महान दुख हट सकता है। हमारा मानव महान सुखी दिखलाई पड़ेगा। उपयुक विवेचनसे प्राचीन भारतीय श्रादर्श तो यही रहा हैविश्वशान्तिक निम्नलिखित कारण सिद्ध हुए अयं निजः परो वेत्ति गणना लघुचेतसाम् । (१) प्रात्मबोध-चेप्टा और भौतिक वस्तुओं में विराग उदारचरितानां तु वसुधा कुटुम्बकम् ॥ अर्थात् आत्मज्ञान | इस श्रादर्शको पुनः प्रतिष्ठापित करना है। विदर्भ में गुजराती जैन लेखक [लपी० विद्याधर जोहरापुरकर, नागपुर महाविद्यालय, नागपुर] विदर्भसे जैनधर्मका सम्बन्ध बहुत प्राचीन है। ऐसे लेखकों में हमें ब्रह्म ज्ञानमागर सबसे प्राचीन फिर भी चौदहवीं मदीसे वह कुछ अधिक दृढ़ हुआ मालूम होते हैं। आप काष्ठामंधक भट्टारक श्री. है। राजस्थान और गुजरातसे बघेरवाल, बण्डल- भूपण के शिष्य थे, जिनका समय सत्रहवीं शताब्दी वाल आदि जातियों के लोग इस समय बड़ी तादाद- है। आपकी कई व्रतकथाओंका निर्देश अनेकान्तमें में विदर्भमं आकर बसे । इससे यह सम्बन्ध बहुत पहले हो चुका है । हमारे संग्रह में आपके द्वारा कुछ दृढ़मृल हुआ। इस सम्बन्धका एक विशेष अंग रचित दशलक्षणधर्म, पोडशकारण भावना, षट्कम, यह रहा कि विदर्भक जैनसमाजमें स्थानीय मराठी रत्नत्रय आदि विविध विषयांक कोई चार सौ पद्योंभाषाके साथ माथ राजस्थानी और गजगती भापा- का एक गुटका है । इस गुट कमें इन स्फुट पद्यांके के साहित्यका भी निर्माण होता रहा। इस लेग्वमें अलावा आपकी दो रचनाए और हैं। जिनमेंसे एक हमने ऐसे वैदर्भीय गुजराती साहित्यका ही संक्षिप्त रचना 'नीर्थावली' है । इसमें कोई एक सी पद्यां में निरूपण किया है। अनेकान्त वर्ष १२, पृष्ठ ३०
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy