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२५४] अनेकान्त
[ वर्ष १४ संन्यासी जन भी मूढ़ता-पूर्ण कायक्लेश करनेको ही तप तितो च सुत्तस्स च जागरस्स च सतत समित्तं मान कर अपनेको कृतकृत्य अनुभव कर रहे हैं। कहीं कोई णाणं दंसणं पच्चुपठिति।" धूनी रमा रहा है, तो कहीं कोई पंचाग्नि तप कर अपने हे श्रायुष्मन् ! निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र सर्वज्ञ और सर्वदर्शी साथ दूसरे प्राणियोंको-काष्ठ-गत जीव-जन्तुओंको-भी हैं, वे अपने ज्ञान और दर्शनके द्वारा अशेष चराचर जगत्जिन्दा ही जला रहा है। कहीं सती होनेके नाम पर जीवित को जानते और देखते हैं। हमारे चलते, ठहरते, सोतेकोमलांगी ललनाए जलाई जा रहीं हैं, तो कहीं कोई जागते समस्त अवस्थानों में उनका ज्ञान और दर्शन सदैव पर्वतसे गिर कर या नदीमें कूद कर प्रात्म-घात करनेको ही उपस्थित रहता है। धर्म मान रहा है।
वेदोंमें भी भ. महावीरका स्मरण किया गया है । यथाइस प्रकार दोनों संस्कृतियोंकी दुर्दशा देख कर और देव बहिर्वर्धमानं सुवीरं स्तीर्ण राये सुमर वेदस्याम । चारों ओर अज्ञानका फैला हुआ माम्राज्य देखकर भ. घतेनाक्तंवमव:मीदतेदं विश्वेदेवा आदित्या जियासार महावारका हृदय दुःख और करुणास द्रवित हो उठा, हे देवोंके देव व मान. श्राप सवीर हैं. व्यापक हैं। उनके विचारों में उथल-पुथल मच गई और उन्होंने सत्य हम सम्पदाओंकी प्राप्तिके लिये घृतसे आपका आवाहन धमक अन्वेषण एवं प्रचालत धमाक सशाधन करनका करते हैं। इसलिए सब देवता इस यज्ञमें श्रावें और अपने मनमें दृढ़ निश्चय किया । फल-स्वरूप भरी जवानी. प्रसव हो।
-तीस वर्षको उम्रम-राजला वभव एव सुन्दर परिवार- भ. महावीरकी नग्नता और तपस्विताको भी वेदोंमें को छोड़ करके प्रवृजित हो गये। उन्होंने निश्चय किया कि स्वीकार किया गया है। यथामेरे कत्तव्य-पथमें कितनी ही विघ्न-बाधाएँ क्यों न आवे, आतिथ्यं रूपं मासरं महावीरस्य नग्नहुः । तथा कितने ही घोर उपसर्ग और संकट क्यों न उपस्थित रूपमुपसदामेतत्तिस्रा रात्रीः सुरामुता.३ ॥ हों, किन्तु मैं सबको धैर्यपूर्वक शान्त भावसे सहन करता अतिथि-स्वरूप, पूज्य, मासोपवामी, नग्नरूपधारी हा अपने सकल्पसे कभी चल-विचल न होऊँगा और महावीरकी उपासना करो, जिससे संशय, विपर्यय और सत्यकी शोध करूंगा।
अनध्यवसायरूप तीन अज्ञान और धनमद एवं विद्यामदकी भ. महावीरने प्रवृजित होनेके पश्चात् अपने लिए उत्पत्ति नहीं होवे। कुछ नियम निश्चित किये । वस्त्रोंके परिधानका यावज्जीवन- भ. महावीरके उपदेशोंसे प्रभावित होकर इन्द्रभूति, के लिए परित्याग किया, दिनमें दमरोंके द्वारा प्रदत्त, श्रम- वायुभूति, अग्निभूति आदि बड़े-बड़े वैदिक विद्वानोंने अपने कल्पित, निर्दोष आहार जल एक बार लेने, जमीन पर सेकड़ों शिष्यों के साथ भगवान्का शिष्यत्व स्वीकार किया। सोने और निर्जन जंगलों में मौन-पूर्वक एकाको जीवन
भ. महावीरने कैवल्य-प्राप्तिके पश्चात् भारतवर्ष के बितानेका संकल्प किया। उन्हें अपने इस साधक जीवन में विभिन्न भागोंमें विहार कर ३० वर्ष पर्यन्त धर्मोपदेश अनेकों बार अतिभयानक कष्टोंका सामना करना पड़ा दिया। उन्हान अपन उपदशाम पुरुषार्थ पर ही सबस परन्तु वे एक वीर योद्धाक समान अपने कर्तव्य-पथसे अधिक जोर दिया है। उनका स्पष्ट कथन था कि श्रारम
विकासकी सर्वोच्च अवस्थाका नाम ही ईश्वर है और कभी भी विचलित नहीं हुए। पूरे बारह वर्ष तक मौनपूर्वक प्रात्म-चिन्तन एवं मननके
इसलिए प्रत्येक प्राणी अपनेको सांसारिक बन्धनोंसे मुक्त पश्चात् भ० महावीरको कैवल्य प्राप्त हश्रा और वे सर्वज्ञ कर और अपने आपको श्रास्मिक गुणोंसे युक्र कर नरसे और सर्वदर्शी बन गये।
नारायण और आत्मासे परमात्मा बन सकता है। इसी भ. महावीरकी इस सर्वज्ञता और सर्व-दर्शिताको सिलसिलम उन्हाने बताया कि उक्र प्रकारके परमात्मा स्वयं महात्मा बुद्ध ने भी स्वीकार किया है और एक अवसर परमेश्वरको संसारकी सृष्टि या संहार करनेके प्रपंचोंमें इनेपर अपने शिष्योंसे कहा है।
की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है। जो यह मानते "णिग्गंठो, आवुसो नाथपुत्तो सव्वज्ञ मव्वदस्सावी । मज्झिमनिकाय भाग १, पृष्ठ १२ । २ ऋग्वेद, मंडल अपरिसेसं.णाण-दसणं परिजानाति : चश्तो च मे २, अ० १, सुक्र ३ । ३ यजुर्वेद, प. १६, मंत्र १४