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भ. महावीर और उनके दिव्य उपदेश
(श्री हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री)
चैत्रका महीना अनेक दृष्टियोंसे अपना खास महत्त्व लगे। तथा ब्रह्माके मस्तक मादि चार अंगोंसे बाहाबादि रखता है। भ. ऋषमदेव-जिन्हें लोग युगादि महामानव, चारों वर्गोंको उत्पन हुमा कह कर अपनेको सबसे श्रेष्ठ सष्टा, विधाता कहते हैं-का जन्म इसी चैत्र मासके मानकर औरोंको हीन या तुच्छ समझने लगे। कृष्णपक्षको नवमीके दिन हुआ। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री श्रमण लोग इन बातोंके प्रारम्भसे विरोधी रहे हैं। रामका जन्म चैत्र शुक्रा नवमीके दिन हुमा । अहिंसाके वे सन्यास, प्रात्म-चिन्तन, सयम, समभाव, तप, दान, परम अवतार भ. महावीरका जन्म भी इसी चैत्र मासकी प्रार्जच. अहिंसा और सत्य-वचनादिके उपर जोर देते थे एवं शुखा त्रयोदशीको हुा। तथा श्रीरामके सातापहरखके आत्मशुद्धिको प्रधान मानते थे। उनका बषय बौकिक समय उनके संकटमें सहायक होनेसे संकट मोचन नामसे वैभव या स्वर्गादि अभ्युदयकी प्राप्ति न होकर परम प्रसिद्ध, वज्रांगवली श्री हनुमानका जन्म भी इसी चैत्र पुरुषार्थ निःश्रेयस (मोक्ष) की प्राप्तिका रहा है। मासको शुक्रा पाणमाकै दिन हुआ। इस प्रकार चार महा- भाजसे बदाई हजार वर्ष पूर्व जब भ• महावीरका परुषोंको जन्म देनेका सौभाग्य इसी इस चैत्र मासको प्रात जन्म या. उस समय ब्राह्मण संस्कृतिका बोलबाला था है । भारतवर्ष के प्रसिद्ध दो संवत्सर-विक्रम संवत् और और वह अपनी चरम सीमा पर पहुंची हुई थी। म. शक संवत्-भी इसी इसी चैत्र मासके शुक्र और कृष्ण पक्षसे
महावीरने ज्योंही होश संभाला, तो देखा कि धर्मके नाम प्रारम्भ होते हैं । इस प्रकार यह चैत्र मास भारतीय इतिहास- पर माता-पूर्ण क्रियाकाण्डका कितना आडम्बर रचा जा रहा में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है
है। यज्ञ-यागादिको धर्म मानकर उनमें भूक पशुओंकी जिन्होंने भारतीय इतिहासका अध्ययन किया है, वे बलि दी जा रही है, लोग अपनी रसना इन्द्रियको तृप्स जानते हैं कि महाभारत और रामायण कालसे पहले करनेके लिए जीवोंकी हिंसा कर रहे हैं, और उन्हें तापते भारतवर्षमें ब्राह्मण और श्रमण नामकी दो संस्कृतियों एवं चीत्कार करते हुए भी यज्ञाग्निमें जिन्दा भून कर उनके प्रचलित थी । जैन आगमोंसे भी इसकी पुष्टि होती है। मांमका आस्वाद लेकर प्रसन्न हो रहे हैं। देवी-देवताओंके भ. शषभदेवने सर्वप्रथम स्वयं प्रवृजित होकर श्रमण नाम पर कितना अन्ध-विश्वास फैला हुआ है, तथा सबसे संस्कृतिका श्रीगणेश किया, तथा उनके ज्येष्ठ पुत्र एवं दयनीय दशा स्त्री और शूद्रोंकी हो रही है कि जिन्हें प्राद्य सम्राट् भरत चक्रवर्तीने ब्राह्मणोंकी स्थापना कर उन्हें वेदादिके पठन-पाठनकी तो बात ही दूर है, सुनने तकका क्रियाकाण्डकी प्रार अग्रसर किया है। ये दोनों ही भी अधिकार नहीं है। शुद्धोंके वेदध्वनि श्रवण करने धाराएँ तभीसे बराबर प्रवाहित होती हुई चली आ रही पर उनके कानोंमें शीशा और लाख भर दिये जाते हैं,® हैं। किन्तु बीच-बीच में उन दोनोंके भीतर विकृतिके गन्दे वेदोच्चारण करने पर उनके शरीरके दो टुकड़े कर दिये जाते नाले भी मिलते रहे और उस समय होने वाले मध्यवर्ती हैं। शूद्रोंको निंद्य एवं घृणित समझनेके लिए यह मान्यता २२ तीर्थकरोंने उभय-धाराघोंको संशोधित करनेके भी प्रचलित की गई थी कि शूद्ध का अब खा लेने पर उस प्रयत्न किये हैं।
वी लोगोंको सूभरका जन्म लेना पड़ता है। प्रातःकाल भरत चक्रवर्ती-द्वारा प्रस्थापित ब्राक्षम संस्कृतिका बाहिर कहीं जाते-आते समय शुद्धका देखना अपशकुन पतन भ• मुनिसुव्रतनाथके समयसे प्रारम्भ हुश्रा। इसी समझा जाता है, उनके दस
। समझा जाता है, उनके देखनेसे अपवित्र हुई आंखोंको समबके धामपास वेदोंकी रचना प्रारम्भ हुई। भगवान्
शुद्ध करनेक लिए उन्हें पानीसे धोना और शुद्धके शरीरका
शुद्ध करनक लिए उन्ह पाना नेमिनाथ और पार्श्वनाथके समयमें ब्राह्मण संस्कृतिने अपनी स्पर्श कर लेने पर सचेल स्नान तक करना प्रावश्यक विकृतिका उग्र रूप धारण कर लिया ग्राहय लोग वेदोंको माना जाता है। एक ओर तो म. महावीरने माहाय ईश्वरीय वाक्य मानने लगे। इन्द्र, सोम, यम, वरुण
संस्कृतिका यह बोलबाला देखा। दूसरी ओर देखा कि
सस्कृतिका यह बालबान भादि देवताओं की पूजा कर और यज्ञों में पशु-बलि देकर श्रम-संस्कृति भी अस्त-व्यस्त सी हो रही है और साथउससे स्वर्ग-प्राप्ति एवं सांसारिक ऋद्धियोंकी कामना करने गौतमधर्मसूत्र, १२-४-६ + वशिष्ठय सूत्र, ६-२01