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अध्यात्म-दोहावली (श्री. रामसिंह सूरी)
(4. हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री)
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अप्पायत्तउ जंजि सुह, तेण जि करि संतोसु। पर मुहु वढ चितंतह, हियइ ण फिट्टइ सोसु ॥
जो सुख स्वारमाधीन है, उससे कर सन्तोष । पर-सुख चिंतत हृदयके दूर न हो अफसोस।
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जं मुहु विसय-परंमुहउ, णिय अप्पा मार्यतु । तं सुहु इंदु वि एउ लहइ, देविहिं कोडि रमंतु ॥
जो सुख विषय-विरक्रके, श्रातम ध्यान धरंत। सो सुख इन्द्र न पा सके, देवी कोटि रमंत ॥
आभुजता विसय-सुह, जेण वि हियइ धरति । ते सासय-मुहु लहु लहहि, जिणवर एम भांति ।।
मोगत भी जो विषय-सुख, नहिं मन मोह धर्राय। वे शाश्वत सुग्व लहु लहें, जिनवर यों बतलाय॥
५
ण विमुजंता विसय-सुह, हियडइ माउ धरंति। सालिसित्थु जिम वप्पुडउ,णरणरयह णिवर्डति ।।
नहिं भोगत भी विषय-सुग्व, जो मन मोह धरंत । शालिसिक्थ्य ज्यों दीन वह, नरकों मांहि पढत ।।
आयई अडवड वडवडइ, पर जिज्जइ लोउ। मणसुद्धई णिचल ठियई, पाविजह परलोउ।
विपदामें बड़बड़ करें, अनुरंजित हों लोक । निश्चल मनकी शुद्धिसे, पर सुधरे पर-लोक ॥
धंधई पडियउ सयलु जगु, कम्मई करइ अयाणु। मोक्खह कारणु एक्कु खणु,ण विचितइ अप्पाणु।।
धंधोंमें पड़ सकल जग, कर्म करे अनजान । मोक्ष-हेतु पर एक क्षय, धरै न पातम-ध्यान ।।
अण्णु म जाहि अप्पणउ, घर परियणु तणु इदछु। कम्मायत्तउ कारिमउ, आगमि जोइहि सिठ्ठ॥
घर परिजन तन इष्ट ये पर हैं, निरा मत मान । नदी नाव संयोग ज्यों, मिले कर्मसे जान।
मोक्खु ण पावहि जीव तुहुँ धणु परियणु चिंततु।। तो इ विचितहिं तउ जि तउ, पावहि सु+खु महंतु ॥
मोक्ष न पावे जीव तू. धन परिजन चितंत। तो भी चिंतै उन्हींको मानत सौख्य महंत ।
घर वास मा जाणि जिय, दुक्किय-वासउ एहु । पासु कयंते मंडियउ, अविचलु ण हु संदेहु ।
गृहावास मत जान जिय, पाप-वास है एह । यम-मंडित थिर पास है. इसमें नहिं सन्देह ।।
मुढा सबलु वि कारिमउ में फुड तुह तुस कडि। सिवपइ णिम्मलिं करह रह, धरु परियणु लहु छडि ।।
कर्म-जाल यह सर्व है, मत तुषको तू कूट। विमल मोक्षसे प्रीति कर, घर परिजनसे छूट ।।