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________________ किरण भ. महावीर और उनके दिव्य उपदेश [२५५ हैं कि कोई एक अनादि-निधन ईश्वर है, और वही जगत- लोक और परलोक दोनों में सुखी होता है। का कर्ता, हर्ता एवं व्यवस्थापक है, उसके सम्बन्धमें भ. उन्होंने बतलायामहावीरने बनाया कि प्रथम तो ऐसा कोई ईश्वर किसी भी अप्पागमेव जज्बाहि किं ते जुज्मेण बज्मी । युक्रिसे सिद्ध ही नहीं होता है। फिर यदि थोड़ी देरके लिए अप्पाणमेव अप्पाणं जइत्ता सुहमेहए ७ ॥ वैसे ईश्वरकी कल्पना भी कर ली जाय तो वह दयालु है विकन विचारों वाली अपनी प्रात्माके गथ ही युद्ध या कर यदि ईश्वर दयालु है, सर्वज्ञ है, तो फिर उसकी करना चाहिए बाहिरी दुनियावी शत्रुओंके साथ युद्ध करनेसे सृष्टि में अन्याय और उत्पीडन क्यों होता है ? क्यों सब क्या लाभ अपनी पारमाको जीतने वाला हा वास्तवमें प्राणी सुख और शान्तिसे नहीं रहते ? यदि ईश्वर अपनी पूर्ण सुखको प्राप्त करता है। सृष्टिको, अपनी प्रजाको सुखी नहीं रख सकता तो, उससे अपने बुरे विचारोंको म्याग्ख्या करते हुए न. महावीरने क्या लाभ ? फिर यही क्यों न माना जाय कि मनुष्य कहाअपने अपने कर्मोका फल भोगता है, जो जैसा करता है, पंचिंदियाणि कोहे माणं मायं तहेय लोहं च । वह वैसा पाता है। ईश्वरको कर्त्ता माननेसे हम दैववादी दज्जयं चेव अप्पाण सेव्वमप्पे जिजियं ॥ बन जाते हैं। अच्छा होता है. तो ईश्वर करता है, बुरा अपने पांचों इन्द्रियोंकी दुर्निवार विषय प्रवृत्तिको तथा होता है, तो ईश्वर करता है, आदि विचार मनुष्यको कोध मान, माया और लोभ इन चार करायों को ही जीतना पुरुषार्थहीन बनाकर जनहितसे विमुख कर देते हैं । अतएव चाहिए। एकमात्र अपनी आत्माकी दुष्पवृत्तियोंको जंत भ० महावीरने स्पष्ट शब्दोंमें घोषणा की लेने पर मारा जगत जीत लिया जाता है। अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य। प्रामाको व्याख्या करते हुए भ० महावीरने बनायाअप्पा मित्तमित्तं च दुप्पट्ठिय सुप्पट्ठियो४ ॥ केवलणारगमहावो केवलदंसण-सहाव सुहमइओ। प्रात्मा ह। अपने दुखों और सुखों का कर्ता तथा भोका केवलसत्तिसहावो मोऽहं इदि चिंतए गाणीमा है। अच्छे मार्ग पर चलने वाला अपना प्रात्मा ही मित्र है प्रारमा एकमात्र केवल ज्ञान और केवल र्शन-म्वरूप और बुरे मार्ग पर चलने वाला अपना आत्मा ही शत्रु है। है अर्थात् संसारके सर्व पदार्थों को जानने-देखने वाला है। उन्होंने और भी कहा वह स्वभावतः अनन्त शकिका धारक और अनन्त मुखमय है। अप्पा नई वेयरणी अप्पा मे कूडसाल्मली। परमात्माकी व्याख्या भ. महावीरने इस प्रकार कीअप्पा काम-दुहा घेणू अप्पा मे नंदनं वनं॥ मलहिओं कल चत्ती अििदया कवलो विद्धप्पा। बुरी विचारधारा वाली प्रारमा ही नरककी बतरणी परमप्पा परर्माजणो सिवकरो मामओ सिद्धी०॥ नदी और कूटशाल्मला वृक्ष है और अच्छी विचारधारा जो सर्वदोष-रहित है, शरोर-विमुक्न है इन्द्रियोंक बाली प्रात्मा ही स्वर्गकी कामदुहा धेनु और नन्दन वन है। अगोचर है. और सर्व अन्तरंग-बहिरंग माम मुक्त होकर इसलिए तुम्हारा दूसरेको भला या बुरा करने वाला विशुद्ध स्वरूपका धारक है, ऐसा परम निरंजन शिवंकर, मानना ही मिथ्यात्व है, प्रज्ञान है। तुम्हें दूसरको सुख- शाश्वत सिद्ध प्रात्मा ही परमात्मा कहलाता है। दुख देने वाला नहीं मानकर अपनी भली बुरी प्रवृत्तियोंको वह परमात्मा कहां रहता है, इसका उत्तर उन्होंने ही सुख दुखका देने वाला मानना चाहिये। इसके लिये । दियाउन्होंने समस्त प्राणिमात्रको संबोधन करके कहा णविएहिं जंणविज्जइ, झाइज्जइ झाइएहि अणवरय अप्पा चेव दमेयव्वो अप्पा हु खलु दुहमो। थुव्वंतेहि थुणिज्जइ देहत्थं किं पितं मुणह ११॥ अप्पा दतोसुही होइ, अस्सिं लोए परत्थ य६॥ जो बड़े-बड़े हन्द्र, चन्द्रादिस नमस्कृत है, ध्यानियोंके बुरे विचारों वाली अपनी आत्माका ही दमन करना द्वारा ध्याया जाता है और स्तुतिकारोंके द्वारा स्तुति किया चाहिये । अपने बुर विचारोंको दमन करनेसे ही प्रात्मा इस . • उत्त.. गा० ३५। ८ उत्त० अ० १ गा. ३६। " उत्तरा. अ. २० गा० ३०५ उत्त० अ०२ गा०३६। ..नियमसार गा.६६।१०. मोक्षप्राभूत गा० १.३ । ६ उत्त.अ. १, गा० २५ । १. मोक्षप्राभूत गा० ।
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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