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________________ २१८] अनेकान्त [वर्ष १४ अन्तिमभाग: अग्रोतकान्वय-नभोगण-पाणेंदुः, राहव माहुहें सम्मन-लाहु, श्रीमाननेक-गुण-रंजित-नारु-चेताः॥२॥ मंभवड समिय मंमार-दाहु । ततोऽभवत्साढल नामधेयः सुतो द्वितीयो द्विषतामजेयः । सोढल नामहो सयल विधरित्ति धर्मार्थकामत्रितये विदग्धो जिनाधिप-प्रोतवृषेण मुग्धः ॥३ धवलंनि भमउ अणवरउ किति ॥ पश्चाद्बभूव शशिमंडल-भासमानः, तिरिण वि भाइय सम्मत्त जुत्त, ग्यानः क्षिनीश्वरजनादपि लब्धमानः । जिणभणिय धम्म-विहि करण धुत्त । सद्दर्शनामृत-रसायन-पानपुष्टः महिमेरु जलहि ससि सृरु जाम, श्रीनट्टलः शुभमना नपिनारिदुष्टः । सहुँ तणुरुहेहि संदतु ताम । तेनेदमुत्तमधिया प्रविचित्य चित्ते, चउविहु वित्त्याउ जिणिद संधु, म्यानोपमं जलदशेपममारभृतं । श्रीपार्श्वनाथच रतं दुरितापनोदि, परममय खुवाइहिं दुलंघु ॥ मोक्षाय कारिमितेन मुद व्यलेखि ॥२॥ वित्थरउ मुयजसु भुअणि पिल्लि, -प्रति भामेर भंडार सं० १९४७ तुदृउ तडित्ति संसार-वल्लि । विक्कम णरिद सुपसिद्ध कालि, नोट-इसके बादमें पहलमाहक सम्बन्धमें १५-२० दिल्ली पट्टणि धण कण विसालि ।। पंकियों और दी हुई है जिनका सम्बन्ध प्रशस्तिसे न होनेके कारण यहां नहीं दी गई। मणवामि एयारह माहि, परिवाडिए वरिसहं परिगएहि । २६-वड़ढमाण कव्व (वर्धमानकाव्य) कसणठुमीहिं प्रागहणमामि, --कवि हरिद र हरिश्चंद) रविवारि समाणि ट सिमिर भामि ॥ आदिभागमिरि पासणाह गिम्मलु चरितु, परमप्पय भावणु मुह-गुगण पावगु णिहणिय-जम्म-जरा-मरण । सयलामल गुण रयणाह दित्त । सासय-सिरि-मुदरु पग्गय पुरंदरु रिसह विनि तिहुयण-सरगु पणवीस सयइ गथही पमाणु, पणवेप्पिणु पुण धरहताणं दुकम्म-महारि-खयंताणं । जाणिज्जहिं पणवीसहि समारणु । वसुगुण-संजोय-समिद्वाणं सिद्धार्ग ति-जय-पसिद्धाणं ॥१॥ बत्ता मुराणं सुद्ध चरित्ताणं वय-संजम भाविय चित्ताणं । जा चन्द दिवायर महिह रसायर ता बुहयहिं पढिजजउ । पर्याडय समग्गमस्यायाणं भव्ययणहो णिरुज्झायाणं ॥२॥ भवियहि भारिजउ गुणहिं थुणज्जाउ बरलेयहि लिहिजड ॥८ माहणं माहिय-मोवाणं सुविसुद्धज्माण- हि-दम्वाणं । इय पास र रइय बह-सिरिहरेण गणभरियं। सम्मत्त-णाण-मुचरित्ताणं स-निमुद्धपण वमि पवित्तागं ॥५॥ भणुमरिणायं मणुज्जं गट्टल-शामेण भब्वेण ॥ वसहाइसुगोत्तमाणं सु-गणाणं संजम धामाणं । पुन्व-भवंतर-कहणो पास-जिणिदस्स चारु-निव्वाणी । अवहारि व केवलवंताणं ......................nel जिण-पियर-दिक्ख-गहणो बारहमो संधी परिसम्मत्तो ॥ x x x x संधि १२ अन्तिमभागःपासीदत्र पुरा प्रसन्न-बदनो विख्यात-दत्त-श्रुतिः, जय देगहिदेव तिथंकर, सूत्र षादिगुणैरलंकृतमना दवे गुरौ भानिकः। बड्ढमाण जिण मन्व-सुहंकर सर्वज्ञ कम कंज-युग्म-निरतो न्यायान्वितो नित्यशो, शिरुवम करणा रसायणु धरणउ, जेजाख्योऽखिखचन्द्रराचिरमलस्फूजयशोभूषितः ॥६॥ कव्व-रयणु कंडलु भउ पुण्ाउ | यस्यांगजोऽजनि सुधीरिह राघवाल्यो, सो गांदड जो शियमणि मण्णइं, न्यायानमंदमतिरुस्मित-सर्व-दोषः। वीर-चरितु वि [मणु] भायण्णाई।
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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