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वर्ष १४
समन्तभद्रका समय-निर्णय सिंहनन्दी आचार्य समन्तभद्राचार्यके बाद हुए हैं। 'ज्ञानसूर्योदय' नाटक और 'जैनहितैषी' भाग ,
अस्तु; ये सिंहनन्दी गंगवंशके प्रथम राजा कोंगुणि- अंक ६, पृ.४३९-४४० को देखनेकी प्रेरणा की गई वर्माके समकालीन थे, इन्होंने गंगवंशकी स्थापनामें थी, क्योंकि उस समय प्रायः इन्हीं आधारोंपर खास भाग लिया है, जिसका उल्लेख तीनों शिला- समाजमें दोनोंका व्यक्तित्व एक माना जाता था, जो लेखोंमें 'गंगराज्यम मादिद" इस विशेषण-पदके द्वारा कि एक भारी भ्रम था। परन्तु बादलो मैंने 'स्वामी किया गया है, जिसका अर्थ लेविस राइसने who पात्रकेसरी और विद्यानन्द' नामक अपने खोजपूर्ण made the Gang kingdom दिया है-अर्थात् निबन्धके दो लेखोंद्वारा इस फैले हुए भ्रमको दूर यह बतलाया है कि जिन्होंने गंगराज्यका निर्माण करते हुए यह स्पष्ट करके बतला दिया है कि स्वामी किया' (वे सिंहनन्दी आचार्य)। सिंहनन्दीने गंग- पात्रकेसरी और विद्यानन्दसे कई शताब्दी पहले
राज्यकी स्थापनामें क्या सहायता की थी इसका हुए हैं, अकलंकदेवसे भी कोई दो शताब्दी पहलेके कितना ही उल्लेख अनेक शिलालेखोंमें पाया जाता विद्वान् हैं, और इसलिये उनका अस्तित्व श्रीवर्द्धहै, जिसे यहाँ पर उधृत करनेकी जरूरत मालूम
देवसे भी पहलेका है। और इसीसे अब, जब कि
दवस भा पहलका ह। अ नहीं होती-श्रवणबेल्गोलका वह ५४वा शिलालेख सम्यक्त्वप्रकाश-जैसे ग्रन्थकी पोल खुल चुकी हैं, मैंने भी सिंहनन्दी और उनके छात्र (कांगणिवर्मा के उक्त तीनों शिलालेखोंकी मौजूदगीको लेकर यह साथ घटित-घटनाकी कुछ सूचनाको लिये हुए है। प्रतिपादन किया है कि उनसे श्री राइस साहबके
अनुमानका समर्थन होता है, वह ठीक पाया गया ___ यहाँपर मैं इतना और भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि सन १६२५ (वि० सं० १६८२ ) में
और इसीसे उसपर की गई अपनी आपत्तिको मैने
कभीका वापिस ले लिया है। माणिकचन्द जैनग्रन्थमालासे प्रकाशित रत्नकरण्ड
जब स्वयं कोंगुणिवर्माका एक प्राचीन शिलालेख श्रावकाचारकी प्रस्तावनाके 'समय-निर्णय' प्रकरणमें
शक संवत् २५ का उपलब्ध है (पृ. ११७) मैंने श्री लविस राइस साहबके उक्त
और उससे मालूम
होता है कि कोंगुणिवर्मा वि. स. १६० (ई० सन् अनुमान पर इस प्राशयकी आपत्ति की थी कि उक्त शिलालेखमें 'तत:' या 'तदन्वय' आदि शब्दोंके द्वारा
१०३) में राज्यासन पर आरूढ़ थे तब प्रायः यही
समय उनके गुरु एवं राज्यके प्रतिष्ठापक सिंहनन्दी सिंहनन्दीका समन्तभद्रके बादमें होना ही नहीं
आचार्यका समझना चाहिये, और इसीलिये कहना सूचित किया बल्कि कुछ गुरुओका स्मरण भी क्रम- चाहिये कि सिंहनन्दीकी गह-परम्परामें स्थित स्वामी रहित आगे पीछे पाया जाता है, जिससे शिलालेख समन्तभद्राचार्य अवश्य ही वि० संवत् १६० से कालक्रमसे स्मरण या क्रमोल्लेखकी प्रकृतिका मालूम पहले हुए हैं। परन्तु कितने पहले, यह अभी अप्रकट नहीं होता, और इसके लिए उदाहरणरूपमें पात्र- है फिर भी पर्ववर्ती होने पर कम-से कम ३० वर्ष केसरीका श्रीअकलंकदेव और श्रीवद्ध देवसे भी पूर्व पहले तो समन्तभद्रका होना मान ही लिया जा स्मरण किया जाना सूचित किया था। मेरी यह सकता है. क्योंकि ३५वें शिलालेखमें सिंहनन्दीसे
आपत्ति स्वामी पात्रकेसरी और उन श्रीविद्यानन्दको पहले प्रार्यदेव, वरदत्त और शिवकोटि नामके तीन एक मानकर की गई थी जो कि अष्टसहस्री आदि प्राचार्योका और भी उल्लेख पाया जाता है. जो ग्रन्थोंके कर्ता हैं, और उनके इस एक व्यक्तित्वके
समन्तभद्रकी शिष्यसन्तानमें हुए हैं और जिनके लिये 'सम्यक्त्वप्रकाश' ग्रन्थ तथा वादिचन्द्रसूति
लिये १०.१० वर्षका औसत समय मान लेना कुछ * योऽसो घातिमल-द्विषबज-शिला-स्तम्भावली-खण्डन
अधिक नहीं है। इससे समन्तभद्र निश्चितरूपसे ध्यानासि: पटुरईतो भगवतस्सोऽस्य प्रसादीकृतः ।
विक्रमकी प्रायः दूसरी शताब्दीके पूर्वार्धके विद्वान् छात्रम्मापि स सिंहनन्दि-मुनिना नो क्षेत्कथं वा शिला- ये दोनों लेख इस निबन्धसंग्रहमें अन्य पृ०५२७ स्तम्भोराज्य-रमागमाध्व-परिघस्तेना सखण्डो बनः ॥ से ३.तक प्रकाशित हो रहे हैं।