________________
अनेकान्त
४]
(E. C. III)। उससे कोंगुणिवर्माका स्पष्ट समय साकी दूसरी शताब्दी का प्रारम्भिक अथवा पूर्वभाग पाया जाता है, और इसलिए उनके मतानुसार यही समय सिंहनन्दीका होनेसे समन्तभद्रका समय निश्चित रूपसे ईसाकी पहली शताब्दी ठहरता हैदूसरी नहीं ।
श्रवणबेल्गोलके उक्त शिलालेख में, जो शक सं० १०५० का लिखा हुआ है, यद्यपि 'तत': या 'तद्वय' जैसे शब्दों के प्रयोग द्वारा ऐसी कोई सूचना नहीं की गई जिससे यह निश्चित रूप में कहा जासके कि उसमें पूर्ववर्ती आचार्यों अथवा गुरुओंका स्मरण कालक्रम की दृष्टिसे किया गया है परंतु उससे पूर्व वर्ती शक संवत ६६६ के लिखे हुए दो शिलालेखों और उत्तरवर्ती शक सं० २०६६ के लिखे एक शिलालेख में समन्तभद्रके बाद जो उन सिंहनन्दी आचार्य - का उल्लेख है वह स्पष्टरूपसे यह बतला रहा है कि गंगराज्यके संस्थापक आचार्य सिहनन्दी स्वामी समन्तभद्र के बाद हुए हैं । ये तीनों शिलालेख शिमोगा जिलेके नगर ताल्लुके में हुमच स्थानसे प्राप्त हुए हैं, क्रमशः नं० ३५, ३६, ३७ को लिये हुए हैं और एपिफिका कर्णाटकाकी आठवीं जिल्द में प्रकाशित हुए हैं । यहाँ उनके प्रस्तुत विषयसे सम्बन्ध रखने वाले अंशोंको उदधृत किया जाता है, जो कनडी भाषामें हैं। इनमें से ३६ व ३७ नम्बरके शिला लेखोंके प्रस्तुत अंश प्रायः समान हैं इसीसे ३६ वे शिलालेखसे ३७वेंमें जहाँ कहीं कुछ भेद है उसे कट नम्बर ३७ के साथ दे दिया गया है
.... भद्रबाहुस्वामीगलिन्दू इतकलिकाल वर्तनेथिं गयाभेंद पुट्टिदुद् अवर श्रन्वयक्रमदिं कलिकालगणधरु शास्त्रतु लुम् एनिसिद् समन्तभद्रस्वामीगल् श्रवर शिष्य संतानं शिवकोव्याचार अवरिं वरदत्ताचाय्यर् अवरिं तत्त्वार्थ सूत्रतुगल एनिसिद् आर्यदेवर अवरिं गंगराराज्यमं मादिद सिंहनन्याचार अवरिंन्दू एकसंधि सुमतिभट्टारकर अवरिं.........।' (नं० ३५ )
• श्रुतकेवल्लिगल निसि ( एनिय ३७) भद्रबाहुस्वामीगल (गलंग३७) मोदलागि पलम्बर ( इलम्बर ३७ ) आचार पोदिम्बतियं समन्तभद्रस्वामिगल उदयसिदर श्रवरश्रन्वय दोल ( अनन्तरं ३७ ) गंगराज्यमं माडिद सिंहनन्द्याचार्य प्रि ..।' (नं० ३६, ३७)
[ वर्ष १४
३५वें शिलालेखमें यह उल्लेख है कि भद्रबाहुस्वामीके बाद यहाँ कलिकालका प्रवेश हुआ - उसका वर्तना आरम्भ हुआ, गणभेद उत्पन्न हुआ और उनके वंश क्रम में समन्तभद्रस्वामी उदयको प्राप्त हुए, जो 'कलिकालगणधर' और 'शास्त्रकार' थे, समन्तभद्रकी शिष्य-सन्तान में सबसे पहले 'शिवकोटि' आचार्य हुए, उनके बाद वरदत्ताचार्य, फिर तत्त्वार्थसूत्र X के कर्त्ता 'आर्यदेव', आर्यदेवके पश्चात् गंगराजका निर्माण करनेवाले 'सिंहनन्दी' आचार्य और सिहनन्दीके पश्चात् एकसन्धि-सुमति-भट्टारक हुए। और ३६ वें ३७वें शिलालेखों में समन्तभद्र के बाद सिंहनन्दीका उल्लेख करते हुए सिंह नन्दीका समन्तभद्रकी वंशपरम्परा में होना लिखा है, जो वंशपरम्परा वही है जिसका ३२ वें शिलालेख में शिवकोटि, वरदत्त और आर्यदेव नामक आचार्योंके रूपमें उल्लेख हैं ।
इन तीनों या चारों शिलालेखोंसे भिन्न दूसरा कोई भी शिलालेख ऐसा उपलब्ध नहीं है जिसमें समन्तभद्र और सिंहनन्दी दोनोंका नाम देते हुए उक्त सिंहनन्दीको समन्तभद्र से पहलेका विद्वान् सूचित किया हो, या कम-से-कम समन्तभद्रसे पहले सिंहनन्दीके नामका ही उल्लेख किया हो। ऐसी हालत में मिस्टर लेविस राइस साहबके उस अनुमानका समर्थन होता है जिसे उन्होंने केवल 'मल्लिषेण प्रशस्ति' नामक शिलालेख (नं० ४५, में इन विद्वानोंके आगे पीछे नामोल्लेखको देखकर हो लगाया था। इन बादको मिले हुए शिलालेखों में 'श्रवरि', 'अवरथन्वयदान' और 'अवर अनन्तरं' शब्दों के प्रयोगद्वारा इस बातकी स्पष्ट घोषणा की गई है कि
X महिला- प्रशस्ति में श्रार्यदेवको 'शब्दान्त कर्त्ता' लखा है और हाँ 'तस्वार्थसूत्र कहीं।' इससे 'रादान्त' और 'तत्वार्थ सूत्र' दोनों एक ही प्रन्थके नाम मालूम होते हैं और वह गृपाचार्य उमास्वामी के तस्थासूत्र से भिन्न जान पड़ता है।
* श्रवणबेलगोलका उक्त २४वाँ शिक्षालेख सन् १८८६ में प्रकाशित हुआ था और नगरताल्लुकके उक् तीनों शिलालेख सन् १९०४ में प्रकाशित हुए हैं, वे सन् १८८६ में लेविस राहूस साहबके सामने मौजूद नहीं थे ।