SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 303
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण] भ० महावीर और उनके दिव्य उपदेश ने कहा है कम्मणा बंभणो होइ, कम्मणा होइ खत्तियो। नेण विणा लोगस्स वि ववहारों मव्वहा ण णिव्वडइ। कम्मणा वइसो होइ सुदो हवइ कम्मणा २१ ॥ तम्स भुवणेक्कगुरुणो णमो अणेगंतवादस्स ॥ मनुष्य कमसे ही ब्राह्मण होना है, कर्मसे ही क्षत्रिय जिसके बिना लोकका दुनियादारी म्यवहार भी अच्छी होता है, कर्मसे ही वैश्य होता है और शूद्र भी अपने तरह नहीं चल सकता, उस लोकके अद्वितीय गुरु अनेकान्त- किये कर्मसे होता है। बादको नमस्कार है। ___ भ. महावीरने केवल जाति या वर्णका मेर करने भ० महावीरने धर्मके व्यवहारिक रूप अहिंसावादका वालोंको ही नहीं, किन्तु साधु संस्थाके सदस्यों तकको उपदेश देते हुए कहा फटकारा .. सव्वे पाणा पियाउआ सुहसाया ण वि मुडपण ममणोरा ओंकारेण बंभयो। दुक्खपडिकूला अप्पिय-बहा। ण मुणो रण्णवासेण ण कुसचीरेण तापसो २२॥ पियजीविणो जीविउकामा सिर मुडा लेने मात्रसे कोई श्रमण या साधु नहीं णातिवाएज्झ किचण॥ कहला मकता, ओंकारके उचारण करनेसे कोई ब्राह्मण नहीं सर्व प्राणियोंको अपना जीवन प्यारा है, सबही सुखकी माना जा सकता, निर्जन वनमें रहने मात्रसे कोई मुनि इच्छा करते हैं, और कोई दुःख नहीं चाहता। मरना सबको नहीं बन जाता, और न कुशा (डाभ) से बने वस्त्र अप्रिय है और सब जीनेकी कामना करते हैं । अतएव किसी पहिननेसे कोई तपस्वी कहला सकता है । किन्तुभी प्राणीको जरा भी दुःख न दो और उन्हें न सतायो। समयाए समणो होइ, वंभचेरेवा बभणो। लोगोंके दिन पर दिन बढ़ती हुई हिंसाकी प्रवृत्तिको णाणे मुणी होइ, तवेण होइ तापमो २३॥ देखकर भ० महावीर ने कहा जो प्राणि मात्र पर साम्य भाव रखता है वह श्रमण सव्वे जीवा वि इच्छंति जीविउंण मरिज्जि। या माधु कहलाता है, जो ब्रह्मचर्य धारण करता है, वह तम्हा पाणिवह घोरं णिगथा वज्जयति ॥ ब्राह्मण कहलाता है। जो ज्ञानवान है, वह मुनि है और सभी जीव जीना चाहते हैं मरना कोई नहीं चाहता। और जो इन्द्रिय-दमन एवं कषाय-निग्रह करता है वह इसलिये किसी भी प्राणी का वध करना घोर पाप है। तपस्वी है। मनुष्यको इससे बचना चाहिए । जो धर्मके आराधक हैं, वे इस प्रकार जाति, कुल या वर्णके मदसे उन्मत्त हुए कभी किसी जीवका घात नहीं करते। पुरुषों को भ० महावीरने नाना प्रकारसे सम्बोधन कर कहाउच्च-नी वकी प्रचलित मान्यताके विरुद्ध भ. महावीरने स्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान विनाशयः। कहा सोऽत्येति धर्ममात्मीय न धर्मो धार्मिकैविना ॥२४॥ जन्म-मित्तण उच्चो वा णीचो वा वि को हवे। जो जाति या कुलादिक मदसे गर्वित होकर दूसरे सुहासुहकम्मकारो जो उच्चो गीचो य सो हवे २ ॥ धर्मात्मानोंको केवल नीच जाति या कुलमें जन्म लेने ऊँची जाति या उच्च कुलमें जन्म लेने मात्रसे कोई मात्रमे अपमानित एवं तिरस्कृत करता है वह स्वयं अपने उच्च नहीं हो जाता और न नीचे कुलमें जन्म लेनेसे कोई ही धर्मका अपमान करता है। क्योंकि धर्म धर्मात्माके नीच हो जाता है। जो अच्छे कार्य करता है, वह उब है बिना निराधार नहीं ठहर सकता। और जो बुरे कार्य करता है, वह नीच है। अन्तमें भ. महावीरने जाति-कुल मदान्ध लोगोंसे इसी प्रक र वर्णवादका विरोध करते हुए भी उन्होंने कहा कहाकिसी वर्ण-विशेषमें जन्म लेने मात्रसे मनुष्य उस वर्णका कासु समाहि करहु को अंचल, नहीं माना जा सकता । किन्तु छोपु अछोपु भणिवि को वंचउ । १७ अनेकान्त जयपताका । १८ प्रहात नाम २१ उत्तराध्ययन । २२ उत्तराध्ययन, ०२५, गा०३३ १६ दशबैक लिक, गा." २३ उत्तराध्ययन, अ० २५, गा० ३. ..अज्ञात नाम २४ रत्नकरण्डक, रखोक २६
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy