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________________ ' २५ ] अनेकान्त [वर्ष १४ हल सहि कलह कण सम्माण उ, इसलिए हे संसारी प्राणियो,यदि तुम आरमाके जहिं जहि जीवहु तहिं अप्पाणउ ॥२२॥ वास्तविक सुखको प्राप्त करना चाहते हो, तो समस्त परिग्रहसंसारके जाति कुल-मदान्ध हे भोले प्राणियो, तुम का परित्याग करो। क्योंकिकिस छूत या बदा मान कर पूजते हो और किस अछूत सम्वथविमुक्को सीदीभूदो पसएणचित्तो या मान कर अम्मानित करते हो? किस मित्र मान कर जं पावइ पीइसुहं ण चक्वट्टी वि तं लहदि ॥२७॥ सम्मानित करते हो और शत्रु मानकर किसके साथ कलह करत हो हे देवानां प्रिय मेरे भन्यो, जहाँ जहाँ भी में सर्व प्रकारके परिग्रहसे विमुक्त होने पर शान्त एवं देखता हूँ, वहीं वहां सब मुझे श्रात्मत्व ही-अपनापन ही प्रसन्ना प्रसन्नचित्त साधु जो निराकुलता-जनित अनुपम आनन्द प्राप्त दिखाई देता है। करता है, वह सुख अतुल वैभवका धारक चक्रवर्तीको नहीं भ. महावीर के समयमें एक और लोग धन-वैभवका मिल सकता है। संग्रह कर अपनको बड़ा मानने लगे थे और अनिश यदि तुम सर्व परिग्रह छोड़नेमें अपनेको असमर्थ उसक उपार्जनमें लग रहे थे। दूसरी और गरीब लोग पाते हो, तो कमसे कम जितनेमें तुम्हारा जीवन-निर्वाह श्राजीविकाके लिए मार-मारे फिर रहे थे। गरीबोंकी सन्तान चल सकता है, उतनेको रख कर शेषके संग्रहकी तृष्णाका गाय-भैंमाके ममान बाजारों में बेची जाने लगी थीं और तो परित्याग करो। इस प्रकार भ. महावीरने संसारमें धनिक लोग उन्हें खराद कर और अपना दासी-दास बना विषमताको दूर करने और समताको प्रसार करनेके लिए कर उन पर मनमाना जुल्म और अत्याचार करते थे। अपरिग्रहवादका उपदेश दिया। भ. महावीरने लोगोंकी इस प्रकार दिन पर दिन बढ़ती इस प्रकार भ. महावीरने लगातार ३० वर्षों तक हुई भोगल-लमा और धन-तृष्णाकी मनोवृत्तिको देख अपने दिव्य उपदेशोंके द्वारा उस समय फैले हुए अज्ञान कर कहा और अधर्मको दूर कर सज्ज्ञान और सद्धर्मका प्रसार जह इंधणेहिं अग्गो लवणसमुद्दा णदी-सहस्सेहिं किया। अन्तमें याजसे २४८३ वर्ष पूर्व कार्तिक कृष्णा तह जोवास तित्ती अस्थि तिलोगे वि लद्धम्मि:॥ अमावस्याके प्रात.कालीन पुण्यवेलामें उन्होंने पावासे निर्वाण जिस प्रकार अग्नि इन्धनस तृप्त नहीं होती है, और प्राप्त किया। जिस प्रकार यमुद्र हजारों नदियोंको पाकर भी नहीं प्रघाता भ. महावीरके अमृतमय उपदेशोंका ही यह प्रभाव है. उसी कार नीन लोककी सम्पदाके मिल जाने भी था कि आज भारतवर्षसे याज्ञिकी हिंसा सदाके लिए बन्द जोनको इच्छा कभी नृप नहीं हो सकती हैं। हो गई, लोगोंसे छुवाछूतका भूत भगा और समन्वय२५ पाहुडदोहा. गा. कारक अनेकान्त-रूप सूर्यका उदय हुआ। २६ भग० श्राराधना, गा० १५४३ २. भग. पाराधना, गा० ११२ 'अनेकान्त' की पुरानी फाइलें अनेकान्त की कुछ पुरानी फाइलें वर्ष-४-५, और वर्ष से १३ वें वर्षतक की अवशिष्ट हैं, जिनमें समाज के लब्ध-तिष्ठ विद्वानों द्वारा इतिहास, पुरातत्त्व, दर्शन और साहित्यके सम्बन्धमें खोजपूर्ण लेख लिखे गये हैं और अनेक नई खोजों द्वारा ऐतिहासिक गुत्थियोंको सुलझानेका यत्न किया गया है । लेखोंकी भाषा संयत सम्बद्ध और सरल है। लेख पठनीय एवं संग्रहणीय हैं। फाइलें थोड़ी ही शेष रह गई हैं। अतः मंगानेमें शीघ्रता करें। चारकी दृष्टिसे अनेकान्त हाल की ११वें १२वें १३वें वर्षकी फाइलें दशलक्षणपर्वके उपलक्षमें अर्ध मूल्यमें दी जायगी और शेष वर्षोंकी फाइलें लागत मूल्यमें दी जायेगी । पोस्टेज खर्च अलग होगा। -मैनेजर
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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