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नियतिवाद...
किरण ३-४]
[ १ ऐसी स्थिति में नियतिवाद का आश्रय लेकर य प बड़े बड़े यन्त्र अपने निश्चित उत्पादनके भविष्य के सम्बन्ध में कोई निश्चित बात कहना आंकड़ों का खाना पूरा कर देते हैं पर उनके
व-सिद्ध कार्यकारणभाव की व्यवस्था के कार्यकालमें बड़ी सावधानी और सतर्कता बरती सर्वथा विपरीत है। यह ठीक है कि नियत कारण जाती है। फिर भी कभी-कभी गड़बड़ हो जाती है। से नियत कार्य की उत्पत्ति होती है और इस प्रकार बाधा पानेकी और सामग्रीकी न्यूनता की के नियतत्वमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। पर संभावना जब हैं तब निश्चित कारणसे निश्चित. इस कार्यकारणभावकी प्रधानता स्वीकार करने पर कार्यकी उत्पत्ति संदिग्ध कोढिमें जा पहुँचती है। नियतिवाद अपने नियत रूपमें नहीं रह सकता। तात्पर्य यह कि पुरुषका प्रयत्न एक हद तक भविष्यकारण हेतु
की रेम्बा को बांधता भी है, तो भी भविष्य जैन दर्शन में कारण को भी हेतु मानकर उसके अनुमानित और सम्भावित ही रहता है। द्वारा अविनाभावी कार्यका ज्ञान कराया जाता है। नियति एक भावना है। अर्थात् कारणको देखकर कार्यकारण-भावकी इम नियतिवादका उपयोग किसी घटनाके नियतता के बल पर उससे उत्पन्न होने वाले कार्य घट जाने पर सांस लेनेके लिए और मनको समझाने का भी ज्ञान करना अनुमान-प्रशाली में स्वीकृत है। के लिए तथा आगे फिर कमर कस कर तैयार हो पर उसके साथ दो शर्ते लगी हैं.-'यदि कारण- जाने के लिए किया जा सकता है और लोग करते सामग्रीकी पूर्णता हो और कोई प्रतिबन्धका कारण भी है। पर इतने मात्रसे उसके श्राधारसे बत न आवें तो अवश्य ही कारण कार्यको उत्पत्र व्यवस्था नहीं की जा सकती। वसु-पकाया वो
व कुछ नियत वस्तु के वास्तविक स्वरूप और परिणमन पर ही हो तो किसी नियत कारणसे नियत कार्यकी निर्भर करती हैं। भावनाएँ चित्तके समाधानके उत्पत्तिका उदाहरण भी दिया जा सकता था; पर लिए भायीं जाती हैं और उनसे वह उद्देश्य सिद्ध सामान्यतया कारण . सामग्रीकी पूर्णता और भी हो जाता है, पर तश्व-व्यवस्थाले क्षेत्रमें अप्रतिबन्धका भरोसा इसलिम नहीं दिया जा भावना का उपयोग नहीं है। वहां हो। सकता कि भविष्य सुनिश्चित नहीं है। इसलिए इस विश्लेषण और तन्मूलक कार्यकारण भावकी बात की सतर्कता रखी जाती है कि कारया सामग्री परम्पराका ही कार्य है। उसी के बल पर पदाथके में कोई बाधा उत्पन्न न हो। आजके मन्त्र-युग में वास्तविक स्वरूपका निर्णय किया जा सका।
मनको उज्ज्वल धवल बना
(बा० जयभगवान जी, एडवोकेट) 'क्यों धौले तू क्षार हृदय में,
सजन-सजग भाभासे अपनी, मनको उज्वल. धवल बना।
___जगको ज्योती पूर्व सभाको अनुपम सुन्दर, परिणति तेरी,
रंग-विरंग है वैभव सेरा, ऋद्धि-सिद्धि सम्पन्न बना॥ थिरक रहे हैं तुझसे कण-कण,
हुला-दुला तू अपनी निधिको, . . थिरक, प्रो नम-वानराग।
- . मधुमाल क्षेत्र बना॥ मनको. स्फूर्ति-क्रान्ति-शान्ति तुझसे,
प्रभुत-अक्षय महिमा तेरी, शान्ति का संसार बना ॥ मनको० ।
रसूल मसीह अवतार बना। स्वप्न-कल्पों का वास बना तू,
खिला-खिला तू अपनी महिमा, पालोकोंका वास बना।
भूमिको मुक्री धाम बना। मनको.