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अनेकान्त
[वर्ष १४ उस समय वैसा हो परिणमन होना था, महात्माजी चोरी, दगाबाजी और हत्या श्रादि सब कुछ उन-उन का वैसा ही होना था और गोली और पिस्तौलका भी पदार्थों के नियत परिणाम हैं, इसमें व्यक्ति विशेषका वैसा ही परिणमन निश्चित था। अर्थात् हत्या नामक कोई दोष नहीं। घटना, नाथूराम, महात्माजी, पिस्तौल और गोली
एक ही प्रश्न, एक ही उत्तर आदि अनेक पदार्थोके नियत कार्यक्रमका परिणाम है। इस घटनासे सम्बद्ध सभी पदार्थोके परिणमन
इस नियतिवाद में एक ही प्रश्न है और एक ही नियत थे सब परवश थे। यदि यह कहा जाता है
उत्तर । ऐसा होना ही था' यह उत्तर प्रत्येक प्रश्न
का है। शिक्षा, दीक्षा, संस्कार, प्रयत्न और पुरुषार्थ कि नाथूराम महात्माजीके प्राणवियोगमें निमित्त
सबका उत्तर भवितव्यता। न कोई तर्क है न कोई पुरुहोनेसे हत्यारा है, तो महात्माजी नाथूरामके गोली
षार्थ और न कोई बुद्धि । अग्निसे धुश्रा क्यों हुआ ? चलाने में निमित्त होनेसे अपराधी क्यों नहीं? यदि
ऐसा होना ही था। फिर गीला ईधन न रहने पर निर्यात-दास नाथूराम दोपी है, तो नियति-परवश
धुंआ क्यों नहीं हुआ ? ऐसा ही होना था। जगत्में महात्माजी क्यों नहीं ? हम तो यह कहते है पदार्थोके संयोग-वियोगसे विज्ञान सम्मत अनन्तकि पिस्तौलसे गोली निकलनी थी और गोलीको
कार्यकारण-भाव है। अपनी उपादान योग्यता और छातीमें छिदना था, इसलिये नाथूराम और महा- निमित्त सामग्री के संतुलन में परस्पर प्रभावित माजीकी उपस्थिति हुई। नाथूराम तो गोली और प्रभावित या अर्ध प्रभावित कार्य उत्पन्न होते हैं। पिस्तौलके उस अवश्यंभावी परिणमनका एक वे एक दसरे के परिणमन के निमित्त भी बनते हैं। निमित्त था जिसे नियतिचक्रके कारण वहाँ पहुँचना जैसे एक घड़ा उत्पन्न हो रहा है, इसमें मिट्टी, कुम्हारपड़ा। जिन पदार्थों की नियतिका परिणाम हत्या
चक्र, चीवर आदि अनेक द्रव्य कारण-सामग्रीमें नामकी घटना है, वे सब पदार्थ समान रूपसे
सम्मिलित हैं। उस समय न केवल घड़ा ही उत्पन्न नियतियंत्रसे नियंत्रित हो जब उसमें जुटे हैं तब हुआ है किन्तु कुमारकी भी कोई पर्याय चक्रकी अमुक उनमेंसे क्यों मात्र नाथूरामको पकड़ा जाता है।
पर्याय और चीवरकी भी अमुक पर्याय उत्पन्न हुई है। इतना ही नहीं, हम सबको उस दिन ऐसी खबर
न एसा खबर अतः उस समय उत्पन्न होनेवाली अनेक पर्यायोंमें माननी थी और श्री श्रात्माचरणको जज बनना था, अपने-अपने द्रव्य उपादान हैं और बाकी एक दूसरे इसलिए यह सब हुआ । अतः हम सब और आत्मा के प्रति निमित्त है। इसी तरह जगत में जो अनन्त ही चरण भी उस घटनाके नियत निमित्त हैं। अतःइस कार्य उत्पन्न हो रहे हैं उनमें तत्तत् द्रव्य. जो नियतिवादमें नकोई पुण्य है, न पाप; न सदाचार है परिणमन करते हैं वे उपादान बनते हैं और शेष
और न दराचार ! जब कतृत्व ही नहीं, तब क्या निमित्त होते हैं। कोई साक्षात् और कोई परम्परा सदाचार और क्या दुराचार ? गौडसेको नियतिवाद- से, कोई प्रेरक और कोई अप्रेरक, कोई प्रभावक और के नामपर ही अपना बचाव करना चाहिये था और कोई प्रभावक। यह तो योगायोगकी बात है। जजको ही पकड़ना चाहिये था कि-बूकि तुम्हें जिस प्रकार की बाह्य और आभ्यन्तर कारण हमारे मुकदमेका जज बनना था, इसलिये यह सब सामग्री जुट जाती है वैसा ही कार्य हो जाता है। नियतिचक्र चूमा और हम सब उसमें फंसे। और आ० समन्तभद्रने लिखा है कियदि सबको बचाना है, तो पिस्तौलके भवितव्यपर "
पातरोपाधिसमग्रतेयं कार्येषु ते न्यगतः स्वभावः। सब दोष थोपा जा सकता है कि न पिस्तौलका उस
-बहत्स्व. खोक ६० । समय वैसा परिणमन होना होता तो वह न गौडसे के हाथ में आती और न गाँधीजीकी छाती छिदती। अर्थात् कार्योत्पत्तिके लिए बाह्य और सारा दोष पिस्तौलके नियत परिणमनका है। तात्पर्य प्राभ्यन्तरनिमित्त और उपादान-दोनों कारणोंकी यह कि-इस नियतिवादमें सब साफ है, व्यभिचार, सममता-पूर्णता ही द्रव्यगत निज स्वभाव है।