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________________ किरण १० [३०५ दी। दिन-रात उसके विचारोंमें उन ज्योतिषाचार्य को गम्भीरतासे देख रही थी और उनकी उदासीजीके शब्द गूंजते रहते कि 'अगर आपको सन्तान- नताको समझ रही थी। उसका कारण भी उसकी से मोह है तो यह रास्ता अपनाना ही पड़ेगा, वरना दृष्टि से दूर नहीं था। उसका भी दिल पतिदेवसे सन्तान नहीं हो सकती। उस दिन घर देरसे पहुँचने दूर-दूर रहने लगा था इसीलिये उसने उन्हें मनानेपर पतिदेवने टोक ही दिया कि इतनी देर कहाँ की भी कोई चेष्टा नहीं की । दूसरे वह ऐसा करती लगाई? भी क्यों ? क्योंकि पहले वह नाममात्रको भी रूठती . सुशीला उनके इस कौतुहलपूर्ण प्रश्नको सनकर थी तो उसके पतिदेव उसे मना लिया करते थे । चौकी और बातको बनाते हुए बोली-यही पडोसमें फिर आज वह कैसे उस नियमको भंग कर दे ला० लक्ष्मीचंदके यहाँ गई थी। बात कुछ टल गई। दिन पर दिन बीतते गये । एक दिन सुशीलाका पर थोड़ी देर बाद ही उसकी बाह पर बन्धे ताबाज भाई पाया अपनी बहिनकी बिदा करानेके लिये। पर उनकी दृष्टि गई तो सन्न रह गये। उनको यह परमाशंकरजीने पहले जैसा हंसी-खुशीक साथ समझने में देर नहीं लगी कि यह ज्योतिष के यहाँ उसके प्रति वर्ताव करना चाहा, बहुत कोशिश की गई थी और मुझे धोखा दे रही है, कहती है पड़ोस लेकिन सन्देहने उमंगको नष्ट कर दिया था। फिर में गई थी। तूफान पर तूफान उठने लगे और भी उनका साला उनकी आन्तरिक चेष्टाओंका न सुशीलाके प्रति घृणा पैदा हो चलो। वे उद्विग्न रहने पढ़ सका। दो तीन दिन रहनेके बाद उसने पं. लगे और हंसीका स्थान सन्देहने ले लिया। जीके आगे सुशोलाको लिवा जानेका प्रस्ताव रखा। सुशीलासे अब कोई बातचीत भी करता था तो जहाँ पहले पं० जीने आजतक उसे भेजनेमें मनाई उनको सन्देह दिखाई देता था। उसका किसीके नहीं की, ससुरालकी बातको टाला नहीं, वहाँ आज साथ हंसना तो विष ही घोल देता था और श्रृंगार बोले-मि० जगदीशजी, इस समय कुछ ऐसी बातें करना तो बुरी तरह खटकने लगा था। जहां पहले हैं जिनकी वजहसे मैं भेज नहीं सकता। वैसे मैने वे सुशीलाको घुमाने बाजार ले जाते थे, नई-नई जीवनमें आजतक कभी आपको मना नहीं किया, फैशनेबुल चीजें पहना पहना कर, और बिना उसके पर मुझे दुख है कि इस समय नहीं भेज सकता। कहे ही सब चीजें लाते रहते थे यह सोचकर कि सुशीला रसोईघरमें बैठी यह सब कुछ सुन यह कहीं दिलमें यह न सोचे कि ये मुझसे प्यार नहीं करते अर्थात उसके मनका बहलाव नाना रही थी। कहते हैं कुछ ऐसी बातें हैं,' चोटीस पैरों प्रकारसे करते रहते थे। सिनेमा ले जाते थे हर ___ तक आग लग गई। बेलना कहीं और अंगीठी कहीं रविवारको। वहाँ आज शृंगारकी चीजें समाप्त हो : पटक दी और फौरन ही कमरेमें पहुंची जहाँ उसका भाई और पं० रमाशंकरजी थे । भौहें गई हैं। सुशीलाके कहने पर भी वे नहीं लाई जा रही चढ़ाकर और चिल्लाकर बोली-उसकी वाणीमें हैं। सिनेमा उनकी दृष्टि में पतन करने वाला सिद्ध गौरव था, स्वाभिमान था। आज वह अपनेको नष्ट हो गया है और तिलकधारी ज्योतिषियोंके तो नामसे करके सदाके लिये सुखी होना चाहती थी। उसके ही घृणा हो गई है। कभी-कभी तो वे यहां तक रूपको देखकर ही लोगोंने महाकालीका रूप बनाया सोचते कि अगर मेरे हाथमें राजसत्ता हो जावे तो होगा ऐसा प्रतीत होता था । बोली-क्या कहते मैं सबसे पहले इन दुराचारी पाखण्डी ज्योतिषियों हो-'इस समय कुछ ऐसी बातें हैं जिनकी वजहसे को जेलोंमें बन्द कर द' और उन साधुओंको भी, भेज नहीं सकता।' वे कौन-कौन सी बातें हैं खोलते जो हमारी माता-बहिनोंको सन्तानकी लालसामें क्यों नहीं, उबले-उबलेसे रहते हो, एक दिन मुझे फुसलाकर पतित करते रहते हैं। मारही डालो इस तरहसे क्या होगा । इतना सुशीला भी अपने पतिदेवकी इन सारी क्रियाओं- कहते-कहते जोर-जोरसे रोने लगी।
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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