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________________ २३०] अनेकान्त [वष १४ तू अभिमानको छोड़ दे, तू कहाँ का निवासी है देख राजा रंक कोऊ, थिर नहीं यह थान ॥ और तेरे साथी कौन हैं ? सभी महिमान हैं, संसार जगत देखत तोरि चलवो, तू भी देखत भान । तुझे देखता है और तू अन्य को देख रहा है, घड़ी घरी पलकी खबर नाही, कहां होय विहान । पलकी कोई खबर नहीं है, कहाँ सबेरा होगा यह स्याग क्रोधरु लोभ माया, मोह मदिरा पान | कुछ नहीं ज्ञात होता । तू क्रोध, लोभ, मान, मायारूप राग-दोषहि टार अन्तर, दूर कर अज्ञान । मोह-मदिराके पानका परित्यागकर, दोषोंको दूर भयो सुर-पुर देव कबहूँ, कबहूँ नरक निदान । फैक और अज्ञान तथा अन्तरात्मासे राग-द्वषको । इम कर्मवश बहु नाच नाचे 'भैया' श्राप पिछान ॥ दूर करते हुए अपनेको पिछाननेका यत्न कर । इस तरह कविवरके सभी पद आत्म बोधक हैं, छांदि दे अभिमान जिय रे उनमें भक्तिरसकी पुटके साथ अध्यात्मरसकी काको तू अरु कौन तेरे, सबही हैं महिमान | अच्छी अभिव्यंजना हुई है। जगतका संक्षिप्त परिचय (श्री० ५० अजितकुमार शास्त्री) यह जगत जिसमें कि विचित्र प्रकारके जड़-चेतन, चर- उस अधोलोकके सात विभाग हैं जिन्हें सात नरक कहते अचर, सूचम स्थूल, रश्य अदृश्य पदार्थ भरे हुए हैं, बहुत हैं। नीचे नीचेकी पोरके नरकोंका वातावरण ऊपर उपरके विशाल है, अकृत्रिम है, अनादि एवं अनिधन है। (प्रादि नरकोंकी अपेक्षा अधिक दुखपूर्ण एवं प्रशान्तिमय है । अतएव अन्त-शून्य है। जैनसिद्वान्तमें जगतका आकार बाहरकी उस क्षेत्रमें (अधोलोकमें) नियत समय तक रहने वाले ओर अपनी दोनों कौनियां निकाल कर, अपनी कमर पर जीवोंको महान् दुखोंको सहन करते हुए अपना जीवन दोनों हाथ रखे हुए तथा अपने दोनों पैर फैलाकर खड़े हुए बिताना पड़ता है। मनुष्यके समान बतलाया गया है। जगतके चारों ओर अधोलोकके ऊपर सात राजूकी ऊँचाई पर, यानी जगतके घनोदधि (नमीदार वायु) मोटी वायु और तदनन्तर पतली सी बीचमा ब लोळ माताm वायुका विशाल बेदा है, वायुके उन बेदोंको जैन ऋषियोंने तरह गोल है, अत: जैन भूगोलके अनुसार पृथ्वी गेंदकी तीन वात-वलय संज्ञा से कहा है। तरह गोल न होकर थालीकी तरह गोल है, यदि उस यह जगत १४ राजु (असंख्य योजन) ऊँचा है, उत्तरसे पृथ्वीकी परिक्रमा की जावे तो परिक्रमा करने वाला व्यक्ति दक्षिणकी ओर सब जगह सात राजु मोटा है, किन्तु पूर्वसे जहांसे चलेगा, चलते चलते अन्तमें फिर उसी स्थान पर पश्चिमकी ओर (खड़े हुए मनुष्यके आकारके समान होने या जावेगा, जहांसे कि वह चला था। विशाल भूभाग होनेके कारण) नीचे सात राजू फिर उपरकी मोर क्रमसे घटते हुए कारण एवं विषम वातावरण होनेसे प्रत्येक व्यक्ति परिक्रमा सात राजूकी उँचाई पर एक राजू चौड़ा रह गया है । उससे कर नहीं सकता, परन्तु यदि कोई दैवी शकिसे अपने संभव उपर उसका फैलाव फिर हुआ है और साढ़े तीन राजूकी क्षेत्रमें भ्रमण करना चाहे तो पूर्वसे पश्चिमको ओर या उँचाई पर वह पांच राजू का हो गया है। उसके पागे फिर पश्चिमसे पूर्वकी ओर चलते हुए अपने ही स्थान पर मा क्रमसे घटते हुए अन्तमें (चौवह राजू की उंचाई पर) केवल सकता है। एक राजू रह गया है। समस्त जगतका घनाकार क्षेत्रफल मध्यलोकके ठीक बीच में एक बहुत ऊँचा पर्वत है ३४३ राजू है। जिसका नाम 'सुमेरु' है। मध्यलोककी ऊँचाई उसी पर्वतकी इस जगतके सात राजू वाले नीचे के विभाग को अधो- ऊँचाई तक मानी जाती है। सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारे लोक कहते हैं, जहाँका वातावरण स्वभावसे हो हर तरह (ज्योतिष चक्र) इसी सुमेरु पर्वतकी सदा स्वभावसे प्रददुःखदायक है, अतः उसे 'नरका शब्दसे कहा जाता है। क्षिणा किया करते हैं। इसी कारण उनके प्रकाशके होने
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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