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________________ किरण ६] राजमाता विजयाका वैराग्य [१६५ समय आ गया है कि मैं संसारसं नाता तोड़कर पुण्य नपो- न कर तपस्या और धर्ममें लगना चाहिए। यह शरीर वनमें जाकर अपना समय व्यतीत करू। दुःखद बीमारियोंका घर है। यह मृत्यु के लिये मधुर भोजन अपनी माताके इन वाक्योंको सुनकर जीवन्धर महाराज- सदृश है। जब तक शरीरका स्वास्थ्य नष्ट नहीं होता है के हृदयको बहुत प्राघात पहुँचा और ये मूञ्छित हो गये। और वह बल-हीन नहीं बनता तब तक अपने भोजनके तत्काल उनकी रानियोंने तथा अन्तःपुरकी दासियोंने उनके साथ दूसरोंको (सत्पात्रोंको) भोजन कराओ औ रमानवमुखपर गुलाब-जल छिड़का और पंखांसे हवा की। जब शरीरके द्वारा प्राप्तव्य सद्गुणोंकी उपलब्धिके हेतु बेहोशी दूर हुई तब वे नींदसे जगे हुयेक समान उठ बैठे। उद्योग करो। उन्होंने मातासे अपना सन्देश देनेको कहा । माताने कहा- यह शरीर एक गाड़ी ही तो है और मनुष्य उसको जीवनके विषय में सबकी हार्दिक अभिलाषा रहती है। कितु चलाने वाला ड्राइवर (चालक) है। शरीरमें विद्यमान जन्मस मरण-पर्यंत अपने जीवनका पूर्ण समय हमें ज्ञात प्राण उस गाड़ीके धुरा ( Axle ) समान हैं । यदि बहुत नहीं है । अन्तमें जब मृत्युके आधीन हो जाते हैं तब यम- काल तक लगातार उपयोगमें लनिक कारण गाड़ी जीर्ण राजकी दादोंसे अपनी रक्षा करने में असमर्थ होते है । उस हो गई और शिथिल बन गई तो उसमें नवीन जीवन समय अपने जीवनके व्यर्थ व्यय होने पर शोक करनेके सिवाय रूपी नया धुरा डालना सम्भव नहीं है। किन्तु शरीर और कोई बात हाथमें नहीं रहती। आध्यात्मिक सुधारकी अन्तमें बेकार बनकर छट जाता है। कभी-कभी शरीर प्राशासे बीते दिन वापिस नहीं लौटते । ऐसा होना असंभव शोक और दुःखक प्रवाहमें पड़ कर वृद्धावस्थाके पहले ही है। जैसे भोजनका लोलुपी व्यक्ति सुस्वादु बाहारको खुब नष्ट हो जाता है। अतः इस गाड़ी प्राण-रूपी धुराके खाता है, उसी प्रकार मौत भी नियमसे हमे निगल जायेगी। म्यराब होनेस, बेकार होने के पूर्व मनुष्यको इस शरीरसे हर सबकी मृत्यु निश्चित है । जन्म और मृत्युसे जीवन घिरा प्रकारका लाभ ले लेना उचित है । इसलिये प्रो बन्धु ! इस है। ऐसी स्थितिमें अनुकूल साधन-युक्र नर-जन्मको पाना गाड़ीसे अधिकसे अधिक नतिक लाभ लेनेका प्रयत्न करो। बड़े भारी सौभाग्यकी बात है। इस प्रकारकी अनुकूल सामान्यतया मानव इच्छायोंकि प्राधीन हैं । वे नैतिक परिस्थितिके प्राप्त होने पर तुम्हें इस अवसरसे लाभ उठाना महत्ता प्राप्त करनेका उद्योग नहीं करने । उन्हें धर्मका चाहिये और अन्तःकरण-पूर्वक धर्मक भागमें लगकर प्रात्म- अमली स्वरूप नहीं मालूम है । वे मुखकी इच्छाका दास विकासके हेतु प्रयत्न करना चाहिये । इस धर्म मानको छोड़ रूपमें अनुगमन करते हैं। यह निश्चय मानो कि इच्छाका कर यदि स्त्री और बच्चोंक मध्य सुबमें इंच रहे तो निश्चय लक्ष्य पूर्णतया सार-शून्य है, इसलिए ऐसी सार-हीन से हाथ कुछ न पायेगा । जो लोग कुटुम्बक प्रेममें बंधे रहते इच्छाओंके पछि दौड़ना बन्द करी । इस जगत में हम देखते हैं. वे विशेष कालमें सबसे पृथक् हो जाते हैं, जिस प्रकार है. कि कोई-कोई व्यक्ति महान वैभव-पूर्ण अवस्थामें रहते पानीकी वृदें प्रचड पवनके प्रहारमै बिखर जाती हैं | इम- हये अपनी प्रिय पत्नियों द्वारा प्रदत्त सुमधुर भोजनको लिए मेरी यह सलाह है कि तुम परिस्थितियों के दाम न अनिच्छा-पूर्वक खाने हैं। वही व्यक्ति विपत्ति आने पर बनो । इन्द्रिय जनित सुखकी लालसा, कुटुम्बका प्रेम आदि धन-हीन बन हायमें मिट्टीका बनन ले भोजनके लिये सब बातें तुम्हारे प्रात्म-विकासको रोकती है । इसलिए मेरा गली-गली भीख मांगते हैं। प्रिय बन्धु ! यह निश्चय यह कहना है कि तुम अपने प्रेमपात्रोंके प्रति अनुराग न करो, कि धनमें कुछ भी नहीं धरा है। अपना मन दिखाओ, क्योकि इस प्रकारका मोह अामाकी उन्नतिम आन्मिक संयममें (Spiritual discipline) लगाओ। विघ्न रूप है। जीवन्धर ! मैं तुम्हारी माता हूं, इसे भूलने- क्योकि वही एक प्राप्तव्य पदार्थ है। हम इस संसारमें का साहस धारण करो और मुझे इच्छानुसार साध्वीका देखते हैं कि दुदैवके फल-स्वरूप सुवर्ण-पानमें सदा दूध जीवन व्यतीत करने में स्वतंत्रता प्रदान करो। पीने वाली तथा राजमहल में निवास करने वाली महारानी माताने सद्गुणोंकी महत्ता पर प्रकाश डालते हुए पुनः अपने राजकीय वैभवसं शून्य हो जाती है। निर्धनता और कहा-प्रिय बन्धु ! सुन्दर स्त्रियोंके मध्य विषय-मुखमें सुधाके कारण वह भोजनकं लिये घर-घर भीख मांगती उन्मत्त न होकर वृद्धावस्था पानेक पूर्व ही धर्मको विस्मरण हुई जाती है। संसारका एसा ही स्वभाव है। इसलिये
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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