SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६४ ] अनेकान्त [ वर्ष १४ राज्यमें शान्ति और समृद्धिकी स्थापना हो चुकी थी। अपनी बात बहुओंसे मिलनेके बाद माताने अपने पुत्र उन्होंने प्रजाके सुख और कल्याण-हेतु विपुल धन जगाया। महाराज जीवन्धरको अपने पास बुलाया। महाराज विनीत माता विजया तपोवनसे राजमहल में भा गई। मानाकी भावसे पानी जननीके चरणों में पहुँचे और पुष्पोंसे राजइच्छानुसार महाराज जीवन्धरने सिद्धभगवानका एक भव्य माताकी पूजा की तथा मुकुटसे अलकृत अपने मस्तकको और विशाल जिनालय अशोकवृक्षके समीप बनवाया। माताके चरणों पर रखकर उन्हें प्रणाम किया और माताके उन्होंने जिनमदिरकी निन्यपूजाके एवं वार्षिक उत्सबके लिए समीप बैट गये। उपजाऊ धान के खेतोंसे युक्त एक ग्रामका दान किया। जिन माताने अपने पुत्रको सम्बोधित करते हुए कहा-'वत्स! लोगोंने जीवन्धरके जन्मसे राज्य-प्राप्ति-पर्यत उनका तुम्हें दूसरों से ज्ञात हो गया होगा। प्यारे जीवक ! मैं तुम्हें यह रक्षण किया और सहायता दी, उनकी स्मृतिमें राजमाताने बताऊँगी कि तुम्हारे पिताकी अन्त समय में क्या अवस्था हुई। उक्त सत्कार्योंका प्रतिफल कृतज्ञताके साथ समर्पित किया। इसे ध्यानसे सुनो। तुम्हारे पिता महाराज राजकीय वैभवका ___ जब जीवन्धरका जन्म श्मशान-भूमिमें हुया, तब शासन प्रानन्द भोग रहे थे। दुर्भाग्यवश वे विषय-वासना और देवीने माताकी रक्षा को थी और उसे सावधानी- इन्द्रियोंके सुखोंसे इस प्रकार घिर गये, जैसे सुन्दर पूर्वक तपस्वियोंके श्राश्रममें पहुंचाया था। इस उपकारकी चन्द्रमा ग्रहण के समय राहुसे घिर जाता है । वे विषय-सुखोंके स्मृतिमें राजमाताने देवीके नाम पर एक और मंदिर बन- दास हो गये । उनने लोक-निन्दा पर ध्यान नहीं दिया। वाया । जिस मयूराकृति विमानमें माता राजधानीखे निकली विद्वान् मंत्रियोंकी बुद्धिमत्ता पूर्ण सलाहको नहीं सुना । थीं उसकी स्मृति भी उनके मनमें विद्यमान थी। अतः जिस प्रकार पागल हाथी महावतके अधीन नहीं रहता, उसी उसका भी चित्र अपने कमरेमें लगावाया था। प्रकार वे अपना समय व्यतीत कर रहे थे। मंत्रियोंने देखा प्रमुख श्रेष्ठो कंदुकदन (गन्धोत्कट) ने पांच सौ । कि अब उनको आवश्यकता नहीं है, इ.लिये उन्होंने नौकरी चार बच्चोंके मध्य बालक जीवन्धरका पालन-पोषण ' - छोड़ दी। जैसे समुद्र पारकी दीवारोंको नष्ट करके तटवर्ती किया। राजमाताने अपने भाई महाराज गोविंदकी श्रोरसे नगरको जलमें दुबा देता है, इसी प्रकार राजाको विषयप्रतिदिन शुद्ध गोदुग्ध एव पौष्टिक भोजन द्वारा पांच सौ सुखोंमें डूबनेले बचानेके लिये मंत्रियोंकी हितकी सलाह पांच बालकोंके प्रतिदिन श्राहारकी व्यवस्था की। इतना विफल रहो । अत. वे विषय-सुखमें डूब गये और राजाके कार्य सम्पन्न करके राजमाता विजया चितामुक्त हो गई थीं। कर्तव्योंको भूल गये। उनके मित्र और कुटुम्बी निराश एक दिन सेठानी सुनन्दा, जिसने जीवन्धरका जननी-सरश हा उन्हे अकला छड़ चल गय। उनका असहाय अवस्था ममत्व-भावसे पालन किया था, राजमाता विजयाके समीप उनके ही प्राचरणके परिणामस्वरूप थी। प्राकका बीज पहुँची। माता विजयाने हर्षसे भेंट की तथा कुरुवंशको और बोने पर उसके फलरूपमें दूसरा वृक्ष नहीं उगता । राजाशिशु जीवन्धरकी रक्षार्थ की गई कृपाकी सराहना की। इसके की विवशताको देख कपटी मंत्री काष्ठांगारने जिसके हाथमें पश्चात् माताने बड़े प्रेमसे जीवन्धरकी आठ रानियोंको राजाने समस्त अधिकार सौंप दिये थे, राजाकी प्रभुताको बुलाया और उनसे एक रहस्यकी बात बताते हुए कहा हड़पकर सारे अधिकार हस्तगत कर लिये। इस विकट मैंने पूर्व समयमें एक बार स्वप्नमें एक राजमुकुटको अष्ट स्थितिका ज्ञान राजाको अति विलम्बसे हुआ। अतः उनने मालाबोंसे अलकृत देखा था। उसकी सादी रूपमें तुम गर्भस्थ राजकुमार-तुम्हारी रक्षाके हेतु मुझे मयूर-यंत्रमें जीवन्धरको आठ रानियां प्राप्त हुई हो। जिनेन्द्रदेवके प्रसादसे बिठलाया तथा सुरक्षा-पूर्वक मानेकी आज्ञा दी। मेरे जाने तुम्हारी गोदी हरी-भरी रहे। तुम्हारी जिनेन्द्र भगवानमें पर महाराजने असुरक्षित हो विषम परिस्थितिका सामना अविचलित श्रद्धा रहे । (May you all have, m किया तथा वे कपटी सेनापतिके षड्यंत्रके शिकार हो गये । swearing faith in the Lord.) यह दुःखद अन्त महाराजकी कृतिका ही फल है। जब तुम बुरे बीज बोयोगे तब अच्छी फसल कैसे पाओगे। मेरे प्रिय * क्षत्रचूलामणि, जीवंधरचंपू एवं गचितामणिमें पुत्र ! मैंने ये सब बातें तुम्हें बताई, ताकि तुम विषय-सुखोंश्रेष्ठीका नाम गंधोत्कट लिखा है। के बारेमें सावधान होजाया। अब मेरे लिये यह उपयुक्त
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy