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________________ ६४] भनेकान्त [वर्ष १४ दिलमें उस वेश्या मगधसुन्दरीके प्रति घृणा थी मात्रका हितकारी उपदेश करते हुए विहार करने लगे। तिरस्कार था, उसका नाम तक लेना पसन्द नहीं कर एक बार पुष्पडाल नामक मंत्रि-पुत्रने उनको रहा था और अपनी बुद्धि पर बारंबार सोचता था, भाहार दिया, उनके उपदेशसे प्रभावित होकर दीक्षा धिक्कारता था अपनी विषयासक्तिको । भाज वह लेली, परन्तु वह अपनी इन्द्रियोंपर पूरा पूरा कंट्रोल न वारिषेणके दर्शन करके चरणों में गिर कर अपने पापों कर सके, वैरागको छोड़कर फिरसे सरागी होनेकी की क्षमा याचना करना चाह रहा था, चाह रहा था भावना पैदा होगई। स्त्रियोंके भोगोंकी याद आने लगी उनके चरणों में पश्चातापके दो आँसू गिराना। विचारने लगे-वह पद बड़ा कठिन है, इन्द्रियों पर भागता भागता गया,चरणों में गिर पड़ा, वारिषेण नियंत्रण करना महान कठिन है । विचारों में मलिनता केन और अपने निद्यकर्मके लिए क्षमाकी भीख माँगने एवं भाचारमें शिथिलता दिन पर दिन बढ़ने लगी। लगा। जनता तथा राजा,विद्युश्चोरको इस प्रकार क्षमा- एक दिन पद छोड़कर घरकी और चल पड़े, मुनि याचना करते देखकर सब लोग दंग रह गये । आज वारिषेण उनको इस प्रकार जाता देखकर कल्याणकी उस विधुचोरके प्रति जनसामें श्रद्धा हो गई प्रशंसा भावनासे उनको पुनः वैराग्यमें दृढ़ करने के लिए साथहोने लगी, वह आदमी धन्य है जो अपने पापों पर साथ चल दिये। पबताता है और पछताकर उनको छोड़ देता है। मुनि वारिषेण उस पुष्पडालको साथ लेकर एकदम गिरा हुभा व्यक्ति भी निमित्त पाकर कितना अपने राज-महलमें पहुँचे, माताने देखकर सोचा, अच्छा बन सकता है। अब वह विद्युचार नहीं, क्या पुत्र वारिपेणसे उस दिगम्बरी दीक्षाका पालन सहमों लोगोंके हृदयोंमें श्रद्धा प्राप्त कर चुका था। नहीं हो सका। परीक्षण-हेतु कार्य किये, संतोष हुमा, उसने सब पोरसे मुंह मोड़ कर शान्त और स्वपर नमस्कार किया और पूछा-हे मुनिराज ! किस प्रकार कल्याणकारी मार्गको अपनाया था। आना हुआ? इधर राजाने पुत्रसे कहा-घर चलो तुम्हारी माता तुम्हारे वियोगसे अति दुखी हो रही हैं। मुनि वारिषेणने कहा-मेरी सभी स्त्रियोंको उत्तरमें वारिषेणने कहा-पिताजी, अब मैं जान आभूषणों से सुसज्जित करके यहाँ भेज दीजिये । बूझकर अपनेको दुखमें फंसाना नहीं चाहता। मैंने महारानीने वैसा ही किया। वे बड़ी रूपवती देवसंसारकी लीला देख ली। यहाँ मानव, स्वार्थमें कन्याओंके तुल्य थीं, भाई और मुनि वारिषेणको अन्धा हो दूसरेके हिताहितको नहीं देखता, यहाँ नमस्कार किया। मानवमें मायाचार है, एक दूसरेको हड़पनेकी वारिषेणने अपने शिष्य पुष्पडालसे कहा-क्यों कोशिश करता है, भाई भाई में झगड़े हैं। स्वार्थमय देखते हो, ये सब मेरी सम्पत्ति है, इवना बढ़ा राज्य संसार सपना ही सपना है। हाथमें दीपक लेकर भी है, ये सब स्त्रियें हैं । अगर तुम्हें ये सब अच्छी मालूम कुपमें कौन मिरमा चाहेगा। आप मुझे क्षमा करें। देती है तो सभी राज्य सम्पदा ले लो और सम्हालो। अब मुझे वास्तव में मेरे शत्रु जो क्रोध, मान, माया वारिषेण मुनिको पाश्चर्यमें डालने वाले कार्यमें और लोभ है इन पर विजय करना है इनसे ही मेरी कितनी वास्तविकता तथा वैराग्यकी झलक थी। मात्माका कल्याण हो सकता है। पुष्पलाल अपने विचारों पर पछताया और मुनिराजराजाने उनकी अटल प्रतिज्ञाको देखकर पागे के चरणों में गिर पड़ा, प्रायश्चित मांगने लगा। कुछ नहीं कहा । वारिषेणने श्रीसूरदेव मुनिके पास भाग पुष्पडालकी आखें खुल गई, अंतरंगका दीपक जाकर दिगम्बरी दीक्षा लेली, अनेक देशों में प्राणि- जगमगा उठा । तफानभाये और चले गए।
SR No.538014
Book TitleAnekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1956
Total Pages429
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size25 MB
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